बता दें कि आजमगढ़ हमेशा से सपा का गढ़ रहा है। यादव नेता यहां वर्चश्व स्थापित करते रहे है। पिछले दो दशक से यहां राजनीति में रमाकांत यादव, बलराम यादव, दुर्गा प्रसाद यादव जैसे दिग्गज नेताओं का वर्चश्व कायम रहा है लेकिन वर्ष 2016 के बाद परिस्थितिया बदली है। वर्ष 2016 में पूर्वांचल की क्षेत्रीय पार्टी कौमी एकता दल का शिवपाल यादव के साथ मिलकर बलराम यादव ने पार्टी में विलय कराया था।
यह घटना सपा के लिए घातक साबित हुई थी। इसके बाद विवाद इतना बढ़ा कि सपा टूट गयी। शिवपाल के साथ ही अखिलेश यादव ने बलराम यादव को भी मंत्री पद से हटा दिया था। यह अलग बात है कि बाद में मुलायम के दबाव में उन्हें मंत्रीमंडल में शामिल कर लिया गया था। बाद में नई सपा में उन्हें राष्ट्रीय महासचिव का पद दिया गया लेकिन पार्टी की लगातार बढ़ती गुटबंदी ने बलराम यादव को अलग थलग कर दिया है। अब वे एमएलसी भी नहीं रहे।
बाहुबली दुर्गा प्रसाद यादव और बलराम यादव के बीच छत्तीस का आंकड़ा किसी से छिपा नहीं है। पूर्व में दो बार ये दोनों भीतरघात कर एक दूसरे को चुनाव हरा चुके है। दुर्गा के पारिवारिक विवाद की बड़ी वजह भी बलराम यादव को माना जाता है। 2015 के त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव के दौरान इसकी झलक देखने को मिली थी जब दुर्गा के भतीजे के पुत्र रन्नू यादव ब्लाक प्रमुख बने तो विज्ञापन में बलराम थे लेकिन दुर्गा गायब थे। इसके बाद जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में बलराम प्रमोद यादव को टिकट दिलाने में सफल रहे थे यह अलग बात है कि बाद में उनका टिकट कट गया और जिलाध्यक्ष हवलदार यादव की बहू मीरा यादव को दोबारा टिकट मिल गया। वहीं पिछले पंचायत चुनाव में दुर्गा यादव अपने पुत्र विजय यादव को जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठाने में सफल रहे थे।
बलराम यादव हवलदार यादव के राजनीतिक गुरू हैं लेकिन अब दोनों के बीच 36 का आंकड़ा है। रमाकांत यादव और बलराम भी एक दूसरे के घुर विरोधी रहे है। रमाकांत यादव की सपा में वापसी के बाद गुटबाजी और बढ़ी है। कारण कि दुर्गा और रमाकांत के बीच काफी करीबी रिश्ता है। विजय को जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने में रमाकांत की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।
अंदर ही अंदर शह मात का खेल चल रहा है। लोकसभा उपचुनाव 2022 में गढ़ में मिली हार के बाद अखिलेश यादव ने प्रदेश अध्यक्ष को छोड़ सभी इकाइयों को भंग कर दिया है। सपा के नए जिलाध्यक्ष चुने जाने हैं। सूत्रों की माने तो बलराम यादव दुर्गा को मात देने के लिए उनके भतीजे प्रमोद यादव अथवा छात्र नेता आर्शीवाद यादव को जिलाध्यक्ष बनाना चाहते हैं जबकि विरोधी गुट इनमें से किसी को जिलाध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहता। वहीं हवलदार यादव एक और मौका चाह रहे है। दुर्गा यादव चाहते है कि पप्पू यादव या शिवमूरत यादव जिलाध्यक्ष बने। रामाकांत यादव इस मामले में सइलेंट है लेकिन अंदर ही अंदर वह भी बलराम गुट का विरोध कर रहे है। इसके अलावा पूर्व मंत्री डा. रामदुलार राजभर, शिशुपाल सिंह सहित डेढ़ दर्जन अन्य नेता भी अध्यक्ष पद की दावेदारी कर रहे हैं।
पार्टी इस गुटबंदी से पूरी तरह वाकिफ है। सूत्रों की माने तो अखिलेश ने मठाधीशों को दर किनार करने का मन बना लिया है। अखिलेश नहीं चाहते कि भविष्य में 2014 अथवा 2022 के उपचुनाव वाली स्थिति उत्पन्न हो। साथ ही वे बीजेपी की भी काट खोजना चाह रहे है। कारण कि बीजेपी पिछले एक दशक में तेजी से उभरी है। खासतौर पर 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत तेजी से बढ़ा है। वहीं वह उपचुनाव जीतने में सफल रही है। इसका प्रमुख कारण पार्टी के प्रति अति पिछड़ों की लामबंदी मानी जा रही है। अब अखिलेश यादव बीजेपी को उसी के दाव से घेरना चाहते है। ऐसे में यह हो सकता है सभी यादव दावेदार दरकिनार कर दिये जाय और पहली बार पार्टी किसी अति पिछड़े अथवा सवर्ण को जिलाध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दे। अंदर खाने से पूर्व मंत्री राम दुलार राजभर, शिशुपाल के नाम की चर्चा भी चल रही है। इसलिए लड़ाई और भी धारदार हो गयी है।