गौर करें तो विधानसभा चुनाव में यूपी में करारी हार के बाद भी सपा और बसपा ने आजमगढ़ में क्रमशः पांच और चार सीट जीती थी। बीजेपी को केवल एक सीट मिली थी। विधानसभा चुनाव में बीजेपी को रमाकांत यादव के बगावती सुर देखने को मिले थे। उस समय रमाकांत ने निर्दल प्रत्याशी उतारने का दावा किया था और कहा था कि अगर उनके प्रत्याशियों को बीजेपी से कम वोट मिला तो लोकसभा में टिकट नहीं मांगेंगे। रामाकांत के भाई लल्लन यादव की बहू दीदारगंज से निर्दल मैदान में उतरी भी लेकिन पांच हजार मत तक सिमट गई।
निकाय चुनाव में बीजेपी ने रमाकांत की पहली पत्नी सत्यभामा को नवसृजित नगरपंचायत माहुल के अध्यक्ष पद के लिए मैदान में उतारा। वही शहर में तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष इंदिरा जायसवाल को नजरअंदाज कर नगरपालिका के ठेकेदार अजय सिंह को प्रत्याशी बना दिया। विधानसभा चुनाव के बाद रमाकांत के सवर्णो को धमकी देने वाली ऑडियो का असर इस चुनाव में दिखा। माहुल के सवर्ण रमाकांत से बदला लेने के लिए दूसरे दलों के साथ खड़े हो गये। परिणाम रहा कि रमाकांत की पत्नी तीसरे पर पहुंच गयी। वहीं आजमगढ़ नगरपालिका सीट पर दावेदारों की नाराजगी और पार्टी की गुटबाजी ने अजय सिंह को पांचवें स्थान पर पहुंचा दिया।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के पास रमाकांत यादव से बड़ा कोई चेहरा आजमगढ़ में नहीं है। रमाकांत को टिकट मिलने के बाद सवर्ण एक बार फिर रमाकांत यादव के सवर्ण विरोधी होने के कारण भाजपा की मुखलफत कर सकते हैं। जिसका खामियाजा बीजेपी को भुगतना पड़ सकता है। रहा सवाल सपा का तो यहां से मुलायम सिंह यादव सांसद है। जिस तहर पिछली बार बड़ी मुश्किल से वे सीट जीते थे उससे यह उम्मीद नहीं कि 2019 में आजमगढ़ से चुनाव लड़ेगे। इसके पीछे एक बड़ी वजह उनका चुनाव जीतने के बाद आजमगढ़ न आना भी माना जा रहा है। दुर्गा प्रसाद यादव और बलराम यादव पूर्व में लोकसभा चुनाव लड़ चुके है। मुलायम के मैदान में न उतरने की स्थिति में सपा को या तो नया प्रत्याशी ढूंढना होगा या फिर इन्हीं में से किसी चेहरे पर दाव लगाना होगा। बलराम जब 2008 में उप चुनाव लड़े तो उस समय दुर्गा पर भीतरघात का आरोप लगा था। कुछ दुर्गा के चुनाव लड़ने पर बलराम के साथ ऐसा ही हुआ था।
अब स्थित इसलिए और बिगड़ गई है कि आजमगढ़ शहर के मुसलमान सपा से खफा है। कारण कि पिछले तीन नगरपालिका चुनाव में यहां सपा ने मुस्लिम प्रत्याशी अिधवक्ता वसउद्दीन को मैदान में उतारा था। उस समय दुर्गा यादव कभी उनके समर्थन में प्रचार के लिए मैदान में नहीं उतरे, फिर भी बसिउद्दीन तीनों बार दूसरा स्थान हासिल किये। इस बार दुर्गा ने अपने करीबी पदमाकर को टिकट दिलाया तो उन्हें जिताने के लिए दिन रात एक कर दिये। दुर्गा प्रसाद का गलियों में घूमकर वोट मांगना मुस्लिम मतदाताओं को नागवार गुजरा और यह चर्चा शुरू हो गयी कि हिंदू प्रत्याशी था इससिए दुर्गा मैदान में उतरने थे। परिणाम रहा कि मुस्लिम वोट बसपा और शीला के साथ खड़ा हो गया और दूसरे पर रहने वाली सपा चौथे पायदान पर खिसक गई।
बसपा का तो उसकी भी राह में कांटे बो दिये गए है। शीला श्रीवास्तव पूर्व में बसपा से नगर पालिका अध्यक्ष थी लेकिन इस बार अंतिम समय पर उनका टिकट काटकर सुधीर सिंह पपलू को दे दिया गया। इसके बाद से कायस्थ मतदाता बसपा से खासे नाराज है। शीला का शहर में बड़ा वोट बैंक माना जाता है। निर्दल उम्मीदवार के रूप में उनकी जीत भी इस बात का प्रमाण है। लोकसभा चुनाव में शीला समर्थक बसपा की परेशानी बढ़ा सकते हैं।
BY- RANVIJAY SINGH