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आधुनिकता की दौड़ में तेजी से सिमट रही परंपराये, सावन में न दिख रहे झूले और ना ही सुनाई दे रही है कजरी

locationआजमगढ़Published: Aug 05, 2019 11:47:33 am

Submitted by:

sarveshwari Mishra

सावन शुरू होते ही लड़किया ससुराल से मायके आ जाती थी।
 
tradition of swinging in the spring is slowly coming to an end

swing tredition

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आजमगढ. एक दौर था जब लोगों को सावन के महीने की प्रतीक्षा होती थी और यह महीना शुरू होते ही गांव की गलियों से लेकर शहर तक झूले पड़ जाते थे। सुबह शाम महिलाएं झूला झूलती थी और कजरी गाती थी। सावन शुरू होते ही लड़किया ससुराल से मायके आ जाती थी। पूरे महीने झूले पर श्याम चले गये नेहिया लगाय के विरहन बनाय के, नाग नाथ के लियावा बनवारी पिया, सुनला हाल सारी पिया ना, कैसे खेलन जाबू सावन में कजरिया बदरिया घेरत आवे ननदी, नगवा डसले हवय रोहित के फुलवरिया में काशी बीच शहरिया में ना, मन मोर बसे अहिर संग सखिया सइयां संग ना जइवे ना जैसे पारम्परिक गीत गाकर महिलाएं न केवल खुद का मनोरंज करती थी बल्कि अपनी परम्परा को जीवित रखती थी। इस दौरान सखियों को सुख दुख बांटने का अवसर मिलता था। लड़किया साथ बैठकर मेंहदी लगाती थी। कहीं न कहीं यह पर्व आपसी वैमन्सता दूर करने में भी मदत करता था। बच्चों को भी झूले पड़ने का इंतजार होता था। साठ से नब्बे के दशक में दर्जन भर फिल्मों में सावन के गीत फिल्माये गये और सभी फिल्मे सुपरहिट रही। मजरूह सुल्तानपुरी से लेकर एआर रहमान ने सावन के गीतों को प्राथमिकता दी। लगान फिल्म का गीत घनन-घनन घन गरज आये और निगाहे का सावन के झूलों ने मुझको बुलाया मैं परदेशी घर वापस आया ने काफी लोकप्रियता हासिल की। लेकिन हिन्दी फिल्मों में सबसे ज्यादा लोकप्रिय बारिश व सावन के गीत गीतकार आनन्द बख्शी एवं संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की जोड़ी ने दिए।

1967 में आयी फिल्म मिलन अमर गीत सावन का महीना पवन करे शोर, फिल्म अनजाना का गीत रिमझिम के गीत सावन गाए भीगी भीगी रातों में, दो रास्ते का गीत छुप गये सारे नजारे क्या बात हो गई, मेरा गांव मेरा देश का गीत कुछ कहता है ये सावन और आया सावन झूम के का शीर्षक गीत बदरा छाए झूले पड़ गए हाए आदि ने लोगों के बीच अमिट छाप छोड़ी। इन फिल्मों के हिट होने के पीछे बड़ी वजह ये सावन के गीत रहे। लेकिन अब फिल्मां से भी सावन के गीत लुप्त होते जा रहे है। वहीं समय के साथ यह परम्परा लगभग समाप्त होती दिख रही है। सावन का महीना चल रहा है नागपंचमी का पर्व सात अगस्त को मनाया जायेगा लेकिन अब तक न तो झूले पड़े और ना ही कजरी सुनायी दे रही है। भोजपुरी कवि राम प्रकाश शुक्ल निर्मोही कहते है कि पहले हम अपनी परम्पराओं का विशेष ख्याल रहते थे कारण कि इन्हीं से हमारी पहचान है लेकिन आज समाज आधुनिकता की अंधी दौड़ में इतने आगे निकल चुका है कि उसे सिर्फ अपना ख्याल है। उसके पास समय नहीं है कि वह पीछे मुड़कर देख सके। यह हमारी संस्कृति और समाज के लिए काफी बुरा दौर है। हम खुद को खोते जा रहे है।
BY-Ranvijay Singh

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