scriptआजमगढ़ में पैदा हुआ था ‘हिन्दी ट्रेवलॉग’ का जनक, आज दुनिया भूली! | tribute to Rahul Sankrityayan, originator of hindi travelogue | Patrika News

आजमगढ़ में पैदा हुआ था ‘हिन्दी ट्रेवलॉग’ का जनक, आज दुनिया भूली!

locationआजमगढ़Published: Apr 14, 2016 12:55:00 pm

Submitted by:

Kaushlendra Singh

आज जब पूरा देश बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को याद कर रहा है पत्रिका उत्तर प्रदेश आपको एक भूली-बिसरी शख्सियत से रू-ब-रू करवा रहा है

rahul sankrityayan

rahul sankrityayan

लखनऊ। आज जब पूरा देश बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को याद कर रहा है पत्रिका उत्तर प्रदेश आपको एक भूली-बिसरी शख्सियत से रू-ब-रू करवा रहा है जिसे ‘हिन्दी ट्रेवलॉग’ का जनक माना जाता है। हम बात कर रहे हैं महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की, जिन्होंने भारत ही नहीं पूरे विश्व में अपना नाम बनाया लेकिन विडंबना रही कि आखिरी समय में वे अपना नाम तक भूल गए। कहा जाता है कि आखिरी क्षणों में उन्हें कुछ भी याद नहीं था वे अपने करीबी लोगों तक को नहीं पहचानते थे।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन का जन्म 9 अप्रैल 1893 को अपने ननिहाल पंदहा जिला आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता श्री गोवर्धन पाण्डेय, कनैला (आजमगढ़, उत्तर प्रदेश) के निवासी थे, उनका पैतृक गांव कनैला था। उनके बाल्यकाल का नाम केदारनाथ पाण्डेय था।

गोवर्धन पाण्डेय के चार पुत्रों (केदारनाथ, श्यामलाल, रामधारी और श्रीनाथ) और एक पुत्री (रामप्यारी) में वे ज्येष्ठ पुत्र थे। केदारनाथ की मां कुलवन्ती नाना रामशरण पाठक की अकेली संतान थीं।

ननिहाल में बीता बचपन

रामशरण पाठक आजमगढ़ के पंदहा गांव के निवासी थे। केदारनाथ का बचपन ननिहाल में ही बीता। बालक केदार वर्ष के कुछ दिन अपने पैतृक गांव कनैला में भी बिताते थे। जब वे पांच वर्ष के हुए तो पंदहा से कोर्इ डेढ़ किलोमीटर दूर रानी की सराय की पाठशाला में नाम लिखा दिया गया। उस समय उर्दू अधिक प्रचलित थी। केदारनाथ का नाम मदरसे में लिखाया गया।

नाना की कहानियों ने जगाई थी लालसा

महापंडित के नाना रामशरण पाठक फौज में बारह साल नौकरी कर चुके थे। अपनी नौकरी के दौरान कर्नल साहब के अर्दली के रूप में जंगलों में दूर-दूर तक शिकार करने जाते थे। उन्होंने दिल्ली, शिमला, नागपुर, हैदराबाद, अमरावती, नासिक आदि कर्इ शहर देखे थे। फौजी नाना अपने नाती को शिकार-यात्राओं की कहानियां सुनाया करते थे। इन्हीं कथा-कहानियों ने केदारनाथ के किशोर मन में दुनिया को देखने की लालसा का बीज अंकुरित किया।

रानी की सराय का मदरसा कुछ दिनों बाद झगड़ों के समय बंद हो गया। अत: केदारनाथ का अगले साल फिर से नाम लिखवाया गया। प्रारंभिक श्रेणी की परीक्षाएं पास करने के बाद नौ साल का केदार पहले दर्जा में पहुंच गया। उसी वर्ष 1902 की बरसात से पूर्व ही गांव में हैजा फैला और केदारनाथ को कुछ दिनों के लिए कनैला भेज दिया गया।

इस तरह यायावर हुए थे महापंडित

राहुल सांकृत्यायन के जीवन का मूलमंत्र ही घुमक्कड़ी यानी गतिशीलता रही है। लेकिन वे घुमक्कड़ बने कैसे आज हम वह कहानी भी आपको बता रहे हैं।

दरअसल कनैला से उनके फूफा महादेव पंडित केदारनाथ को अपने साथ बछवल जो कि कनैला से लगभग 5 किलोमीटर दूर है, ले गए और सारस्वत व्याकरण पढ़ाना आरंभ किया। संस्कृत पढ़ार्इ का यह क्रम एक मास ही चल पाया। फूफा महादेव पंडित के भार्इ के बेटे यागेश से केदार की घनिष्टता हो गई। आगे चलकर केदार की कर्इ यात्राओं में यागेश उनके साथी रहे। इसी साल केदारनाथ का जनेऊ संस्कार विंध्याचल (मिर्जापुर) में हुआ। केदार ने रेल की यात्रा की तथा उसे बनारस के दर्शन भी हुए। केदार की आगे की साहसपूर्ण यात्राओं का शुभारंभ भी इसी समय हुआ। आगे की साहसिक यात्राओं की प्रेरणा भी केदारनाथ को शीघ्र ही मिलने वाली थी। दूसरा दर्जा उत्तीर्ण करने के पश्चात आप तीसरे दर्जा में पहुंचे तो उर्दू की नई पाठ्य-पुस्तक में आपको एक शेर पढ़ने को मिला-

“सैर कर दुनिया की गाफिल, जिंदगानी फिर कहां?
जिंदगी गर कुछ रही तो, नौजवानी फिर कहां?”

यहीं से आरंभ हुआ केदार का यायावरी जीवन। वे राहुल थे और उनका नारा था- चरैवति! चरैवति! यानी चलते रहो! चलते रहो!


नियमित शिक्षा नहीं, फिर भी रचा इतिहास

राहुल जी ने औपचारिक रूप से बस मिडिल किया था। महापंडित को नियमित शिक्षा का अवसर प्राप्त न हो सका पर स्वाध्याय से उन्होंने भारतीय संस्कृति, इतिहास, संस्कृत, वेद, दर्शन और विश्व की अनेक भाषाओं में पांडित्य प्राप्त किया। राहुल का समग्र जीवन ही रचनाधर्मिता की यात्रा थी। जहां भी वे गए वहां की भाषा व बोलियों को सीखा और इस तरह वहां के लोगों में घुलमिल कर वहां की संस्कृति, समाज व साहित्य का गूढ़ अध्ययन किया।

बाल्यकाल से ही भ्रमण के लिए निकले राहुल जी जीवन भर कहीं एक स्थान में जम कर रह न सके। स्वदेश ही नहीं, विदेशों में जैसे नेपाल, तिब्बत, लंका, रूस, इंगलैड, यूरोप, जापान, कोरिया, मंचूरिया, ईरान और चीन में ये कितना घूमे, इसका पूर्ण उल्लेख नहीं मिलता। उनकी खुद की जीवन यात्रा यानि ‘आत्म कथा’ 6 भागों में उपलब्ध है। उनका देहांत 14 अप्रैल 1963 को हुआ था।

संन्यासी से महापंडित का सफर

राहुल सांकृत्यायन उस दौर की उपज थे जब ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारतीय समाज, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीति सभी संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहे थे। वह दौर समाज सुधारकों का था एवं काग्रेस अभी शैशवावस्था में थी। इन सब से राहुल अप्रभावित न रह सके एवं अपनी जिज्ञासु व घुमक्कड़ प्रवृत्ति के चलते घर-बार त्याग कर साधु वेषधारी संन्यासी से लेकर वेदान्ती, आर्यसमाजी व किसान नेता एवं बौद्ध भिक्षु से लेकर साम्यवादी चिन्तक तक का लम्बा सफर तय किया। सन् 1930 में श्रीलंका जाकर वे बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गये एवं तभी से वे ‘रामोदर साधु’ से ‘राहुल’ हो गये और सांकृत्य गोत्र के कारण सांकृत्यायन कहलाये। उनकी अद्भुत तर्कशक्ति और अनुपम ज्ञान भण्डार को देखकर काशी के पंडितों ने उन्हें महापंडित की उपाधि दी एवं इस प्रकार वे केदारनाथ पाण्डे से महापंडित राहुल सांकृत्यायन हो गये।

सन् 1937 में रूस के लेनिनग्राद में एक स्कूल में उन्होंने संस्कृत अध्यापक की नौकरी कर ली और उसी दौरान ऐलेना नामक महिला से दूसरी शादी कर ली, जिससे उन्हें इगोर राहुलोविच नामक पुत्र-रत्न प्राप्त हुआ। छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता राहुल ने उपन्यास, निबंध, कहानी, आत्मकथा, संस्मरण व जीवनी आदि विधाओं में साहित्य सृजन किया परन्तु अधिकांश साहित्य हिन्दी में ही रचा।

राहुल तथ्यान्वेषी व जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे सो उन्होंने हर धर्म के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया। अपनी दक्षिण भारत यात्रा के दौरान संस्कृत-ग्रन्थों, तिब्बत प्रवास के दौरान पालि-ग्रन्थों तो लाहौर यात्रा के दौरान अरबी भाषा सीखकर इस्लामी धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन किया।

रचा था घुमक्कड़ शास्त्र

राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- “कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।” राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा।

खुल कर करते थे विरोध

महापंडित राहुल का सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है। वेदान्त के अध्ययन के पश्चात जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरूद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े थे। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए।

कालांतर में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक प्रकाश डाला। अन्तत: सन् 1953-54 के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।

राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई थी। सन् 1940 के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना की थी।

उनके मुखर विरोधों में यह उदाहरण भी है, 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के पश्चात जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति ‘गांधी टोपी’ और ‘जवाहर बण्डी’ पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया।

इसी प्रकार सन् 1940 में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप जमींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।

33 साल बाद की थी ‘घर वापसी’

राहुल सांकृत्यायन सदैव घुमक्कड़ ही रहे। उनके शब्दों में- “समदर्शिता घुमक्कड़ का एकमात्र दृष्टिकोण है और आत्मीयता उसके हरेक बर्ताव का सार।” यही कारण था कि सारे संसार को अपना घर समझने वाले राहुल सन् 1910 में घर छोड़ने के पश्चात पुन: सन् 1943 में ही अपने ननिहाल पंदहा पहुंचे। जब वे पन्दहा पहुंचे तो कोई उन्हें पहचान न सका पर अन्तत: लोहार नामक एक वृद्ध व्यक्ति ने उन्हें पहचाना और स्नेहासक्ति रूधे कण्ठ से ‘कुलवन्ती के पूत केदार’ कहकर राहुल को अपनी बांहों में भर लिया।

अपनी जन्मभूमि पर एक बुजुर्ग की परिचित आवाज ने राहुल को भावविभोर कर दिया। उन्होंने अपनी डायरी में इसका उल्लेख भी किया है- “लाहौर नाना ने जब यह कहा कि ‘अरे ई जब भागत जाय त भगइया गिरत जाय’ तब मेरे सामने अपना बचपन नाचने लगा। उन दिनों गांव के बच्चे छोटी-पतली धोती भगई पहना करते थे। गांववासी बड़े बुजुर्गों का यह भाव देखकर मुझे महसूस होने लगा कि तुलसी बाबा ने यह झूठ कहा है कि- “तुलसी तहां न जाइये, जहां जन्म को ठांव, भाव भगति को मरम न जाने धरे पाछिलो नांव””

70 साल की उम्र में अपने अंतिम सफर पर निकल पड़ा घुमक्कड़

घुमक्कड़ी स्वभाव वाले राहुल सांकृत्यायन सार्वदेशिक दृष्टि की ऐसी प्रतिभा थे, जिनकी साहित्य, इतिहास, दर्शन संस्कृति सभी पर समान पकड़ थी। विलक्षण व्यक्तित्व के अद्भुत मनीषी, चिन्तक, दार्शनिक, साहित्यकार, लेखक, कर्मयोगी और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत रूप में राहुल ने जिन्दगी के सभी पक्षों को जिया। यही कारण है कि उनकी रचनाधर्मिता शुद्ध कलावादी साहित्य नहीं है, वरन् वह समाज, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि से अनुप्राणित है जो रूढ़ धारणाओं पर कुठाराघात करती है तथा जीवन-सापेक्ष बनकर समाज की प्रगतिशील शक्तियों को संगठित कर संघर्ष एवं गतिशीलता की राह दिखाती है।

ऐसे महापंडित को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को भी ले जाया गया। लेकिन, घुमक्कड़ी को कौन बांध पाया है, मार्च 1963 में वे वापस मास्को से दिल्ली आ गए और 14 अप्रैल, 1963 को पंश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग में सत्तर वर्ष की आयु में उनका यहां का सफर पूरा हो गया और वे अपने अंतिम सफर पर निकल गए।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन को हिन्दी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। हिंदी में राहुल सांकृत्यायन जैसा विद्वान, घुमकड़ व ‘महापंडित’ की उपाधि से स्मरण किया जाने वाला कोई अन्य साहित्यकार न मिलेगा। राहुल जी की पुस्तकों में ‘मध्य एशिया का इतिहास’ अवश्य पढ़ें और ‘दर्शन दिग्दर्शन’ भी। संभव हो तो उनकी पुस्तक ‘घुमक्कड़ स्वामी’ भी पढ़ें।

प्रसिद्ध कहानियां: सतमी के बच्चे, वोल्गा से गंगा, बहुरंगी मधुपुरी, कनैला की कथा

उपन्यास: बाईसवीं सदी, जीने के लिए, सिंह सेनापति, जय यौधेय, भागो नहीं, दुनिया को बदलो, मधुर स्वप्न, राजस्थान निवास, विस्मृत यात्री, दिवोदास

आत्मकथा: मेरी जीवन यात्रा (छह भाग)

जीवनियां: सरदार पृथ्वीसिंह, नए भारत के नए नेता, बचपन की स्मृतियां, अतीत से वर्तमान, स्तालिन, लेनिन, कार्ल मार्क्स, माओ-त्से-तुंग, घुमक्कड़ स्वामी, मेरे असहयोग के साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली, सिंहल घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल, सिंहल के वीर पुरुष, महामानव बुद्ध

यात्रा साहित्य: लंका, जापान, इरान, किन्नर देश की ओर, चीन में क्या देखा, मेरी लद्दाख यात्रा, मेरी तिब्बत यात्रा, तिब्बत में सवा बर्ष, रूस में पच्चीस मास।
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