वर्ष 1984 में कांग्रेस जे से राजनीतिक कैरियर कैरियर की शुरूआत करने वाले रमाकांत यादव कभी एक दल में नहीं सके। दल बदल में माहिर रमाकांत यादव जनता दल, सपा, बसपा, कांग्रेस, बीजेपी में रह चुके हैं। यहीं नहीं वह अपनी पत्नी रंजना यादव को जद यू से भी चुनाव लड़े चुके हैं। रमाकांत के बारे में कहा जाता है कि वे जहां भी गए राजनीतिक लाभ के लिए गुटबाजी को बढ़ावा दिया। रमाकांत यादव सर्वाधिक समय समाजवादी पार्टी में रहे। सपा में उन्हें मुलायम सिंह यादव को बेहद करीबी माना जाता है। आजमगढ़ व आसपास के जिलों में अपना वर्चश्व कायम करने क लिए रमाकांत यादव अमर सिंह और आजम खान तक से पंगा लेने में नहीं चुके थे लेकिन गेस्ट हाउस कांड में मुलायम का साथ देने के कारण एक के बाद एक चुनाव में न केवल उनको टिकट मिला बल्कि कद भी बढ़ता गया।
लेकिन अमर सिंह से उनका पंगा भारी पड़ा। बाद में बलराम यादव, दुर्गा यादव जैसे जिले के नेताओं को भी अपना विरोधी बना लिया। गुटबंदी बढ़ी तो अमर सिंह भारी पड़े और 2003 में रमाकांत यादव को सपा से बाहर जाना पड़ा। अब 16 साल बाद एक बार फिर रमाकांत यादव पार्टी में वापसी कर रहे हैं। रमाकांत छह अक्टूबर को दल बल के साथ पार्टी ज्वाइन करेंगे। रमाकांत की वापसी से जिले के राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल जाएंगे। मुश्किल और चुनौतियां सिर्फ विपक्ष की नहीं बढ़नी है बल्कि सपा की राह भी मुश्किल हो जाएगी।
तीन गुटों में बंटी सपा अब चार गुटों में बंट जाएगी। माना जा रहा है कि जैसे पूर्व के चुनाव में बलराम और दुर्गा एक दूसरे को चुनाव हराने के लिए संघर्ष करते थ अब एक नाम और रमाकांत का गढ़ जाएगा। रहा सवाल बीजेपी का तो रमाकांत के जाने के बाद पार्टी मंे एक बड़ी जगह खाली हो चुकी है। रमाकांत के दम पर ही बीजेपी 2009 में पहली बार लोकसभा सीट जीतने में सफल हुई थी। अब रमाकांत यादव विरोध में खड़े होंगे तो पार्टी को एक मजबूत विकल्प तलाशना होगा।
रहा सवाल कांग्रेस का तो वह रमाकांत के जरिए पिछड़ों को अपने पक्ष में करने का सपना देख रही थी लेकिन रमाकांत ने पार्टी को जिस तरह दगा दिया है अब उसे भी एक मजबूत पिछड़े नेता की तलाश पूर्वांचल में करनी होगी। बसपा की चुनौती इसलिए बढ़ जाएगी कि रमाकांत की कुछ प्रतिशत दलितों में पैठ है तो कई जगह उनकी दहशत भी काम आती है।