बता दें कि आजमगढ़ की राजनीति में पिछले चार दशक से यादवों का दबदबा है। कुछ यादव परिवार सीधे तौर पर कुर्सी पर कब्जा किये है नये लोगों को इन्होंने कभी उबरने नहीं है। कभी पूर्व केंद्रीय मंत्री चंद्रजीत यादव और पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव, राम वचन यादव के इर्द गिर्द यहां की राजनीति घूमती थी। यादवों के वर्चश्व का अंदाजा इस बात से लगा सकते है कि जब बीजेपी का जन्म नहीं हुआ था और जनसंघ के प्रत्याशी अपनी जमानत नहीं बचा पाते थे उस समय राम वचन यादव वर्ष 1979 में जनसंघ के टिकट पर विधायक चुने गए थे। वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में जब बसपा पूरे देश में हारी थी खुद मायावती और कांशीराम चुनाव नहीं जीत पाए थे उस समय यादव होने के कारण बसपा के टिकट पर रामकृष्ण यादव आजमगढ़ से चुनाव जीत बसपा के पहले सांसद बने थे। इनके जीत की मुख्य वजह थी बिरादरी होने के कारण यादवों की बसपा के प्रति लामबंदी।
वर्ष 1984 में रमाकांत यादव ने राजनीति की शुरूआत कांग्रेस जे से की। इसी दौरान बलराम यादव और दुर्गा प्रसाद यादव भी सक्रिय हुए। उनके बाद इन तीनों नेताओं ने एक छत्र राज किया। रमाकांत यादव अपने पुत्र को विधायक बनाकर राजनीति में स्थापित कर रहे है। वहीं बलराम चाहते थे कि वर्ष 2009 के चुनाव में उनके पुत्र को सपा लोकसभा लड़ाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ वर्ष 2012 में अखिलेश ने संग्राम को विधानसभा लड़ाया और वे जीत गए लेकिन बलराम ने वर्ष 2014 में फिर संग्राम को लोकसभा का टिकट दिलाने के लिए लामबंदी की लेकिन टिकट बलराम को मिला। बाद में खुद मुलायम सिंह यादव यहां से चुनाव लड़े। दुर्गा ने अपने पुत्र विजय यादव को ब्लाक प्रमुख बनाकर राजनीति की शुरूआत करायी लेकिन अब वे चाहते हैं कि खुद लोकसभा में पहुंचे ताकि उनके पुत्र को विधानसभा में मौका मिल सके। इसके लिए उन्होंने अपने भतीजे का जिला पंचायत अध्यक्ष चुनाव में टिकट कटवाने में भी गुरेज नहीं किया। जिसके कारण पिछले दो साल से चाचा भतीजा आमने सामने हैं।
हवलदार यादव अपनी बहू को जिला पंचायत अध्यक्ष बनाने के बाद खुद को लोकसभा में पहुंचाने का प्रयास कर रहे हैं। इन परिवारों के राजनीति में वर्चश्व के कारण अन्य युवाओं को राजनीति में जगह नहीं मिल रही है। एक बार फिर लोकसभा चुनाव 2019 में बलराम यादव, दुर्गा प्रसाद यादव, हवलदार यादव और अखिलेश यादव टिकट की दावेदारी कर रहे हैं लेकिन बसपा गठबंधन के बाद यहां से अखिलेश यादव के चुनाव लड़ने की जोरदार चर्चा है। अगर अखिलेश चुनाव लड़ते हैं तो इन यादव नेताओं का चुनाव लड़ने का सपना टूटेगा और इन्हें अपनों के स्थापित करने के लिए और इंतजार करना पड़ेगा। रानजीति के जानकार कहते है कि यदि अखिलेश यादव को मैनपुरी और कन्नौज की तरह बड़े अंतर से जीत मिलती है तो वे आगे भी पूर्वांचल में वर्चश्व को कायम रखने के लिए अपने परिवार के किसी सदस्य को यहां से चुनाव लड़ा सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो यहां के यादवों का राजनीति में वर्चश्व समाप्त होना तय है। कारण कि यहां के कार्यकर्ता भी स्थानीय नेताओं पर अखिलेश के परिवार को ज्यादा तरजीह दे रहे हैं।
रहा सवाल बीजेपी के बाहुबली रमाकांत यादव का तो वे आजतक लगातार दो चुनाव कभी नहीं हारे हैं। पिछला चुनाव मुलायम सिंह के मैदान में उतरने के कारण उन्हें हारना पड़ा था अब अखिलेश के आने के बाद उनके लिए गठबंधन से पार पाना आसान नहीं होगा। अगर रमाकांत यादव चुनाव हारते है तो दस साल कुर्सी से दूर हो जाएंगे। बढ़ती उम्र के बीच उनका तेवर भी कम हुआ है ऐसे में उनका जनाधार सिमटने का खतरा बढ़ जाएगा। वैसे रमाकांत यादव पूर्व में सपा में जाने का प्रयास कर चुके हैं लेकिन अब उनके लिए यह भी आसान नहीं हैं।
By Ran Vijay Singh