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बगरू प्रिंट को लगे पंख, फिर से उड़ चला परदेस

locationबगरूPublished: Oct 20, 2021 05:56:12 pm

Submitted by:

Narottam Sharma

पटरी पर लौटा कामकाज : 50 करोड़ से पहुंचा 150 करोड़ : विदेशों में बढ़ी मांग, व्यापारियों, आर्टिजन को मिली राहत

बगरू प्रिंट को लगे पंख, फिर से उड़ चला परदेस

बगरू प्रिंट को लगे पंख, फिर से उड़ चला परदेस

जयपुर. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विख्यात बगरू प्रिंट ने कोरोना काल के करीब 19 माह बाद अब फिर से विदेश की राह पकड़ ली है। आम जनजीवन पटरी पर आने के बाद अब बगरू प्रिंट का सामान जापान, जर्मनी, लंदन, ब्रिटेन, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, इटली, न्यूजीलैण्ड, दुबई, इंगलैंड सहित अन्य देशों में निर्यात होने लगा है। एक्सपोर्टर के जरिए माल दिल्ली, मुम्बई, गुजरात भेजा जाता है। वहां से फिर विदेश जाता है। कोरोना काल में माल का निर्यात बंद होने से व्यापार सिमट कर सालाना 50—60 करोड़ रह गया था जो अब फिर से 150 करोड़ के करीब पहुंच गया है। बगरू प्रिंट से जुड़े व्यापारियों, आर्टिजन के साथ स्थानीय लोगों में इससे खुशी है। बगरू में विश्वविख्यात हाथ ठप्पा छपाई उद्योग है, पुस्तैनी 450 परिवार बगरू प्रिंट के काम से जुड़े हुए हैं। जबकि इससे स्थानीय स्तर पर करीब 15000 लोगों को रोजगार मिला हुआ है। करीब 400 वर्ष पहले बगरू प्रिन्ट की शुरुआत बताई जाती है।
बगरू प्रिंट को लगे पंख, फिर से उड़ चला परदेस
छींपा समुदाय ने दिलाई पहचान
बगरू प्रिंट को अंतरराष्ट्रीय ख्याति दिलाने में छींपा समुदाय की बहुलता है। छींपा समुदाय के लोग सालों से प्राकृतिक तरीकों से ब्लॉक प्रिंटिंग का कार्य कर रहे हैं। अठारवीं सदी में जयपुर शहर में हटवाड़े की सुविधा मिलने से इन कारीगरों में उल्लास बढ़ा। इस आधुनिक दौर में भी छींपा समुदाय के लोग हाथ से की जाने वाली इस कलात्मक कारीगरी को तल्लीनता से आकार प्रदान कर रहे हैं।
प्राकृतिक रंग हैं इसकी विशेषता
बगरू प्रिंट की सबसे बड़ी विशेषता है डाइंग में इस्तेमाल होने वाले प्राकृतिक रंग। इन रंगों में केमिकल इस्तेमाल नहीं होता। बगरू प्रिंट में मुख्यत: लाल, काला और भूरा रंग प्रयुक्त होता है। इन रंगों का निर्माण भी देशी और प्राकृतिक तरीके से किया जाता है। लाल रंग फिटकरी और आल की लकड़ी से, काला रंग घोड़े की नाल को गुड़ के साथ पानी में भिगोकर तथा भूरा रंग थोथा, खनिज और लाल रंग को मिलाकर तैयार किया जाता है। कपड़े को अतिरिक्त और अनावश्यक प्रिंटिंग से बचाने के लिए दाबू तकनीक का इस्तेमाल भी किया जाता है।
लकड़ी के ब्लॉक से होती है कपड़े पर छपाई
कपड़े पर छपाई का काम परंपरागत तरीके से लकड़ी के स्टैम्पनुमा टुकड़ों से किया जाता है जिन्हें ब्लॉक कहते हैं। इन ब्लॉक के निचले भाग पर कलात्मक डिजाइनें होती हैं। एक साड़ी पर सामान्य प्रिंट करने में तीन कारीगरों को लगभग डेढ़ से दो घंटे लगते हैं। बगरू प्रिंट महिलाओं के परिधानों के साथ पुरुषों के जैकेट, कोटियां, कुर्ते पायजामे, धोतियां, दुपट्टे में भी देखने को मिलता है। इसके अलावा बेडशीट, परदे आदि पर भी बगरू प्रिंट किया जा रहा है।
फड़द के नाम से जाना जाता था
रजवाड़े के काफी समय के बाद तक भी स्थानीय क्षेत्र के लोग बगरू प्रिंट को फड़द के नाम से जानते थे बाद में धीरे-धीरे यह कला प्रिंट उद्योग में बदली इसका विस्तार होने से बगरू प्रिंट के नाम से जाना जाने लगा।
बगरू प्रिंट को लगे पंख, फिर से उड़ चला परदेस
इनका कहना है…
जीवन पटरी पर लौटने से अब कुछ राहत मिली है, लेकिन बगरू प्रिंट से जुड़े आर्टिजनों को भी सरकारी स्तर पर सुविधाएं मिलनी चाहिए। उनके लिए बीमा, किसानों की तरह सस्ते दर पर लोन मिलना चाहिए। बगरू में करीब सात हजार आर्टिजन हैं, जिन्हें राहत का इंतजार है। तीन साल पहले अनुदान पर ऋण की सुविधा थी, वो भी अब बंद हो गई है।
– कृष्णमुरारी छीपा, अध्यक्ष, बगरू हाथ ठप्पा छपाई दस्तकार संरक्षण एवं विकास समिति
विश्वविख्यात हाथ ठप्पा छपाई का कार्य प्राकृतिक रंगों से ही किया जाता है। यहां बगरू प्रिंट पूर्णतया विदेशी व्यापार पर निर्भर है। वर्ष 2020 में जहां 50—60 करोड़ का निर्यात था वो अब बढ़कर 150 करोड़ के लगभग पहुंच गया है। कामकाज शुरू होने से सभी खुश हैं।
– विजेन्द्रकुमार छीपा, पूर्व सचिव, बगरू हाथ ठप्पा छपाई दस्तकार संरक्षण एवं विकास समिति
कोरोना काल के बाद अब व्यापार में सुधार हुआ है, लेकिन ये स्थिति कब तक रहेगी यह कहना मुश्किल है। अभी दीपोत्सव के त्योहार से मांग बढ़ी है। मांग बढऩे से व्यापारी अभी खुश हैं।
– नूतन उदयवाल, कोषाध्यक्ष, श्रीविठ्ठल नामदेव युवा सोसायटी छीपा समाज बगरू
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