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कथाकार दूधनाथ सिंह को जब छोड़नी पड़ी थी पढ़ाई…

locationबलियाPublished: Jan 12, 2018 09:03:13 pm

Submitted by:

Ashish Shukla

जिले के सोबंथा गांव के किसान परिवार में हुआ था जन्म

doodhnath singh

doodhnath singh

बिकेश तिवारी की रिपोर्ट
वाराणसी. हिन्दी में चार यार के नाम से विख्यात काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, रवींद्र कालिया एवं दूधनाथ सिंह का याराना अब इतिहास बन चुका है। हिन्दी के प्रख्यात कथाकार, कवि और समाजवादी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर दूधनाथ सिंह का 12 जनवरी की आधी रात को निधन हो गया। उनके निधन से समूचा हिन्दी जगत उदास है। बलिया जनपद के सोबंथा गांंव में 17 अक्टूबर 1936 को जन्में दूूूूधनाथ सिंह के निधन सेे बलिया जनपद भी शोक में डूबा है। बागी धरा के साहित्यकारों ने दूधनाथ सिंह के निधन को बलिया एवं साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति बताते हुए शोक व्यक्त किया। हिन्दी प्रचारिणी सभा, बलिया के मंत्री शिवजी पाण्डेय रसराज ने कहा कि हंसमुख चेहरे वाले सौम्य व्यक्तित्व के निधन की खबर पर सहसा विश्वास नहीं हो रहा। वहीं, कुंवर सिंह इंटर कॉलेज के प्राध्यापक एवं प्रतिष्ठित साहित्यकार शशि प्रेमदेव ने कहा गोरा-चिट्ठा चेहरेवाले जिंदादिली और मुस्कान आंखों के सामने तैर रही है। उनके निधन से साहित्य जगत में बड़ा शून्य उत्पन्न हो गया है, जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती।
यहां ली थी शिक्षा

बलिया से बक्सर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे स्थित छोटे से गांव के किसान परिवार में जन्में दूधनाथ सिंह की प्रारंभिक शिक्षा बलिया में ही हुई थी। महंथ हाईस्कूल जिसका नाम अब सतीशचंद्र कॉलेज है, से स्नातक तक की शिक्षा ग्रहण करने के बाद स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद गए दूधनाथ वहीं के होकर रह गए। तब कॉलेज के प्रधानाचार्य संस्कृत के प्रकांड विद्वान पण्डित सीताराम चतुर्वेदी हुआ करते थे। अध्ययन, अध्यापन एवं रिटायरमेंट के बाद भी वह यदा-कदा ही बलिया आए, लेकिन अपनी मिट्टी के लाल से बलियावासियों के लगाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके निधन की खबर समाचार माध्यमों से प्रसारित होते ही जनपद शोक में डूब गया। साहित्यकारों के साथ ही समाजसेवियों, अध्यापकों एवं आम नागरिकों तक की आंखों में बागी भूमि पर जन्मे एवं पले-बढ़े लाल के जाने का मलाल बूंद-बूंद गिरते आंसू के सहारे तैरता झलक रहा था।
छात्र जीवन में ही पिता के बीमार हो जाने पर पढ़ाई बीच में छोड़ निधन के बाद फिर से अध्ययन की ओर उन्मुख हुए दूधनाथ को बलिया का विकास ना होना भी सालता था। चंद्रशेखर से भी वह इसीलिए खिन्न रहते थे, जो उनके लिखे एक संस्मरणात्मक लेख में बखूबी झलकती है। किसानी से घबराने वाले दूधनाथ किसान परिवार से आने के बावजूद बचपन से ही पढ़-लिख कर कोई नौकरी पाना चाहते थे। अपने एक लेख में वह लिखते हैं कि ग़रीबी-किसानी में एक अजब-सा सुनसान था। उसमें डटे रहने के लिए एक मज़बूत कद-काठी, शारीरिक रूप से परिश्रमी होने की ज़रूरत थी, और मैं एक निहायत दुबला-पतला, हीन, बार-बार बीमार पड़ने वाला लड़का था। अतः रास्ता एक ही था- इस जीवन से निकल भागो, यह नर्क है। यह जीवन एक हरा-भरा रोमानी स्वर्ग है, जिसके लायक तुम नहीं हो। यह सोच कर में पढ़ाई में मेहनत से लगा रहा। मैं एक छिपा रुस्तम था।

बलियाटिकपन पर भी चलाई कलम
दूधनाथ की कलम बलिया के बलियाटिकपन पर भी चली। एक लेख में उन्होंने लिखा है, घर वाले समझते थे कि यह हमारा बेटा पढ़ने में तेज़ है। यह नौकरी में जायेगा तो कमाई से घर-बार भर देगा। तब हम गाँव भर को लट्ठ लेकर चैलेंज करेंगे, मारपीट करेंगे, मुकदमे लड़ेंगे, घर पक्का बनवायेंगे- क्या-क्या महत्त्वाकांक्षाएं थीं मेरी पढ़ाई को लेकर। दूधनाथ ने बलियावासियों के भोलेपन एवं अक्खड़ स्वभाव का भी सुन्दर वर्णन करते हुए लिखा, वे एक अनुगामी समूह की तरह हैं जो उत्तेजित होकर किसी भी ऐरे-गैरे के पीछे चल पड़ने को सदा तैयार रहते हैं। क्या हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था में जनता का यह भोलापन ही उनकी उन्नति में, उनके सामूहिक विकास में सबसे बड़ा बाधक नहीं है।
भोजपुरी से था लगाव
बलिया से दूर रहने के बावजूद दूधनाथ सिंह को अपनी मातृभाषा भोजपुरी से गहरा लगाव था। उन्होंने अपने एक लेख में साहित्य अकादमी के ज्ञानपीठ से सम्मानित बलिया के ही साहित्यकार केदारनाथ सिंह का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा कि हमारी बात हमेशा भोजपुरी में ही होती है। इससे उनका अपनी जन्मभूमि से गहरा लगाव झलकता है।
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