बेंगलूरु. निवेधा और सौरभ आज के दौर में युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत हैं। निवेधा कहती हैं 'कॉलेज में पढ़ाई के दौरान पास ही ऐसी गली थी जहां कचरा पड़ा रहता था और दुर्गन्ध के कारण गुजरना मुश्किल था। एक दिन पूरी टीम के साथ कचरा साफ कर दिया और खुश हो गए। लेकिन, अगले सप्ताह फिर कचरे का अंबार लग गया। लगा कि हम समाधान नहीं ढूंढ रहे। यह कचरा बार-बार सामने आता रहेगा। कारण कचरा पृथक्करण नहीं होना है। अगर एक ही थैली में डायपर, प्लास्टिक कवर, उसके ऊपर सांभर, दाल, चावल और मृत चूहा भी हो तो उस कचरे को कौन हाथ लगाएगा? नगरपालिका भी कचरा शहर से 50-60 किमी दूर ले जाकर फेंक आती है। कचरा डंपिंग के लिए जगह कम पड़ती जा रही है। तब दिमाग में आया कि अगर कचरे का पृथक्करण हो जाए तो बात बन सकती है। फिर उसे रिसाइकल किया जा सकता है। और, यहीं से कचरा निस्तारण पर ध्यान केन्द्रित हुआ।'

दरअसल, इस युवा इंजीनियर ने जब प्रोजेक्ट शुरू किया तो घर-घर जाकर गीला और सूखा कचरा अलग-अलग रखने केलिए समझाया। यह दुष्कर कार्य था। फिर, ऐसी तकनीक विकसित करने की ठानी जो एक ही थैले में रखे गीले और सूखे कचरे को अलग कर सके। ऐसी तकनीक विश्व में किसी देश में नहीं थी। प्रयोग के तौर पर घरों से कचरा एकत्र करने लगी। निवेधा कहती हैं 'कॉलेज के साथी मजाक में मुझे कचरेवाली तक कहने लग गए। कहीं कचरा नजर आने पर कहते थे क्या कर रही हो, देखो वहां कचरा है, जाओ साफ करो। जब आसपास के घरों से कचरा लेने जाती तो लोग इंतजार करते हुए मिलते। इस प्रक्रिया में मैं हर किसी के साथ घुल-मिल चुकी थी।'

धीरे-धीरे यह छोटी सी शुरुआत मिशन बन गई। साथी जुडऩे लगे। उन्हीं में से एक हैं सौरभ जैन। सौरभ कहते हैं 'कभी सोचा नहीं था कि कचरे की ओर आकर्षित हो जाऊंगा। जब निवेधा से मिला और इनकी टीम को कचरे की समस्या से जूझते देखा तो लगा कि मेरी भी मंजिल यही है। काम कठिन था। दुनिया में अब तक ऐसी कोई तकनीक नहीं थी जो कचरे को उसी रूप में लेकर पृथक करे। विश्वास नहीं था कि यह हो पाएगा। लोगों ने यह कहकर हतोत्साहित भी किया कि अब तक जितने लोगों ने प्रयास किए हैं वे नाकाम ही रहे, बड़े-बड़े संस्थान फेल हो गए। आज भी लोग कहते हैं कि यह संभव नहीं। लेकिन, जब प्रत्यक्ष देखते हैं तो उन्हें विश्वास हो जाता है।'

निवेधा आज ट्रैशबॉट तैयार करने वाली कंपनी ट्रैशकॉन लैब्स प्राइवेट लिमिटेड की संस्थापक और मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं। सौरभ सह संस्थापक और मुख्य परिचालन अधिकारी हैं। ट्रैशबॉट शहर के किसी भी मोहल्ले में एक छोटी सी जगह में लगाया जा सकता है। यह 500 किलोग्राम से लेकर 2 टन, 5 टन और 10 टन क्षमता का है, जो एक घंटे में कचरा पृथक कर रिसाइक्लिंग योग्य बना देता है। इसे दिन में कई बार चलाया जा सकता है। किसी मोहल्ले में लगा दिया तो कचरा शहर से 60 से 70 किमी दूर ले जाने की जरूरत नहीं रहेगी। करोड़ों रुपए कचरा ढोने पर खर्च हो रहे हैं उसेे बचाया जा सकता है। जहां ट्रैशबॉट है वहीं कचरा अलग होगा और रिसाइकल भी। गीले कचरे से बायोगैस आदि तैयार होते हैं जबकि सूखे कचरे से बोर्ड आदि बनता है, जो अंतत: कुर्सी, टाइल्स, सजावटी सामान या फर्नीचर आदि के निर्माण में काम आता है। इस तरह कचरे से कमाई का मार्ग प्रशस्त होकर रोजगार सृजित होता है। बेंगलूरु, गुजरात और चेन्नई में ऐसे ट्रैशबॉट लगाए जा चुके हैं। आयोध्या में भी लगने वाला है। इसके अलावा मलेशिया, सिंगापुर, नेपाल सहित कई देशों ने इसके लिए ट्रैशकॉन टीम से संपर्क किया है।

निवेधा और सौरभ कहते हैं कि 'हमें विश्वास नहीं था कि यहां तक पहुंच पाएंगे। संदेह खुद की वजह से नहीं था, लोगों ने पैदा किया था। लोग कहते थे कि जिस काम में बड़े-बड़े संस्थान फेल हो गए उसे आप लोग क्या कर पाओगे। एक तरफ हाथ में नौकरी थी और दूसरी तरफ ऐसा प्रोजेक्ट जिसमें भविष्य अनिश्चितता से भरा था। बेहद चुनौतीपूर्ण समय था। शुरुआत में एक किलो का ट्रैशबॉट बनाया। एक किलो यानी एक घर का कचरा। फिर 50 किलो क्षमता का ट्रैशबॉट बनाकर एक अपार्टमेंट के बेसमेंट में लगाया। इससे काफी सीखने को मिला।'
...और धराशायी हुई उम्मीदें
निर्णायक समय तब आया जब राज्य सरकार के स्टार्टअप को बढ़ावा देेने वाले कार्यक्रम 'एलिवेट 100Ó में चुने गए। उससे मिली प्रोत्साहन राशि से 200 किलो कचरा निस्तारण वाला ट्रैशबॉट बनाया। उसे नगरपालिका कार्यालय के पास लगाया। पहली बार चलाने के लिए कई नामी हस्तियों को आमंत्रित किया। लेकिन, जैसे ही मशीन चली कचरे में आए बड़े पत्थर से मशीन टूट गई, उम्मीदें ध्वस्त हो गईं और हम रो पड़े। सोच आया कि अब किसी को क्या चेहरा दिखाएंगे। ऐसा लगा कि प्रोजेक्ट छोड़ दें।
निर्णायक समय तब आया जब राज्य सरकार के स्टार्टअप को बढ़ावा देेने वाले कार्यक्रम 'एलिवेट 100Ó में चुने गए। उससे मिली प्रोत्साहन राशि से 200 किलो कचरा निस्तारण वाला ट्रैशबॉट बनाया। उसे नगरपालिका कार्यालय के पास लगाया। पहली बार चलाने के लिए कई नामी हस्तियों को आमंत्रित किया। लेकिन, जैसे ही मशीन चली कचरे में आए बड़े पत्थर से मशीन टूट गई, उम्मीदें ध्वस्त हो गईं और हम रो पड़े। सोच आया कि अब किसी को क्या चेहरा दिखाएंगे। ऐसा लगा कि प्रोजेक्ट छोड़ दें।

हालांकि, दिसम्बर 2017 में इस घटना के बावजूद हमने हार नहीं मानी। अगले 12 से 13 महीने में ही फिर नई मशीन तैयार की और सफलता का स्वाद चखा। टीम के छह लोगों लगभग हर दिन कचरे के साथ बिताया। टीम बिना झिझक कुछ भी कर गुजरने को तत्पर है। निवेधा कहती है 'जब तक कचरे में नहीं सनेंगे बात नहीं बनेगी।Ó निवेधा की टीम सफलता की नई कहानी लिख चुकी है। ट्रैशबॉट आज सरकार से ज्यादा लोगों को पंसद आ रहा है। कचरे की समस्या का यह समाधान यूरोप या किसी दूसरे देश से नहीं बल्कि भारत से ही आया है। कचरा आमदनी और रोजगार का साधन बन रहा है क्योंकि जहां ट्रैशबॉट वहां कम से कम छह लोगों को काम।
समाज के लिए कुछ करना बड़ी बात: निवेधा
हरेक चाहता है कि कचरे की समस्या का हल निकले। आखिर किसी को तो आगे आना होगा। अगर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा। मां ने हौसला बढ़ाया। वे मेरी प्रेरणा स्रोत हैं। उन्हीं के प्रोत्साहन से आगे बढ़े और प्रोजेक्ट को जुनून की तरह लिया। पैसा सब कुछ नहीं। समाज प्रभावित हो रहा है तो यह बड़ी है।
हरेक चाहता है कि कचरे की समस्या का हल निकले। आखिर किसी को तो आगे आना होगा। अगर हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा। मां ने हौसला बढ़ाया। वे मेरी प्रेरणा स्रोत हैं। उन्हीं के प्रोत्साहन से आगे बढ़े और प्रोजेक्ट को जुनून की तरह लिया। पैसा सब कुछ नहीं। समाज प्रभावित हो रहा है तो यह बड़ी है।
पहले देश और दूसरों के बारे में सोचें: सौरभ
परिवार से देश और दूसरे के बारे में पहले सोचने का संस्कार मिला। आज हम अपने काम से संतुष्ट हैं। हर युवा को खुद पर भरोसा करना चाहिए। एक समस्या पकड़ लीजिए, जिसका समाधान आप करना चाहते हंै। आप गिरेंगे, रोएंगे, टूटेंगे! मगर, लक्ष्य असंभव नहीं।