विश्लेषकों व कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि आंतरिक कलह और भावी रणनीति को लेकर अस्पष्टता, खासकर उपचुनाव के बाद जद-एस से गठबंधन को लेकर विरोधाभासी बयान पार्टी को महंगा पड़ा। कांग्रेस महाराष्ट्र के बाद एक और बड़े राज्य में भाजपा को सत्ता से बाहर करना चाहती थी लेकिन उसे खुद करारी हार का सामना करना पड़ा। महाराष्ट्र के बदलाव का फायदा कांग्रेस नहीं उठा पाई और पार्टी की हार की हैट्रिक बन गई। पार्टी नेताओं का मानना है कि आतंरिक कलह और गुजबाटी के अलावा चुनाव प्रचार से वरिष्ठ नेताओं की दूरी और उम्मीदवारों के चयन में खामी के कारण भी पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा।
कांग्रेस ने येडियूरप्पा सरकार की विफलताओं को उठाने के बजाय सिर्फ विधायकों की अयोग्यता और पाला-बदल के मसले को उठाया लेकिन यह दांव उल्टा पड़ गया। साढ़े छह साल तक लगातार सत्ता में रहने के बावजूद कांग्रेस मतदाताओं के मिजाज को समझने में नाकाम रही। विश्लेषकों का कहना है कि हाल के वर्षों में यह पहला मौका था जब कांग्रेस ने किसी चुनाव को लेकर सजग शुरुआत की। 8 सीटों पर उम्मीदवारों के चयन में इस बार कांग्रेस आगे रही लेकिन उसके बाद पार्टी में उपजे आंतरिक कलह के कारण बाकी उम्मीदवारों को लेकर कांग्रेस अंतिम क्षणों तक संशय में रही। कांग्रेस ने गोलबंदी तो शुरु की लेकिन उसका पूरा अभियान मोदी और येडियूरप्पा विरोधी बयानों पर ही केंद्रित होकर रह गया। इसी बीच, कुछ कांग्रेस नेताओं ने जनता दल-एस से दुबारा गठबंधन को लेकर विरोधाभासी बयान भी दिए, जिसका परोक्ष फायदा भाजपा को मिला। सिद्धरामय्या मध्यावधि चुनाव की बातें कर रहे थे तो दिनेश गुंडूराव और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष जी परमेश्वर जैसे नेता जद-एस से फिर गठजोड़ के पक्षधर थे। हालांकि, सिद्धू पिछली गठबंधन सरकार के कामकाज के आलोचकों में रहे हैं।