भक्त सही मायने में सुख और आनंद का पर्याय : आचार्य
- मंदिर का पांचवां ध्वजारोहण

बेंगलूरु. आचार्य देवेंद्रसागर सूरीश्वर एवं मुनि महापद्मसागर विहार करते हुए महालक्ष्मी लेआउट स्थित जैन मंदिर में पहुंचे, जहां चिंतामणि पाश्र्वनाथ जैन चैरिटेबल ट्रस्ट प्रांगण में जैन मंदिर का पांचवां ध्वजारोहण महोत्सव आचार्य की निश्रा में होगा। इसके तहत पहले दिन अढार अभिषेक पूजन का आयोजन हुआ। बंबोरी परिवार ने श्रद्धालुओं के साथ पूजन में लाभ लिया।
आचार्य ने प्रवचन में कहा कि भक्ति में बहुत शक्ति होती है। भक्ति का तात्पर्य है-स्वयं के अंतस को ईश्वर के साथ जोड़ देना। जुडऩे की प्रवृत्ति ही भक्ति है। दुनियादारी के रिश्तों में जुट जाना भक्ति नहीं है। भक्ति का मतलब है पूर्ण समर्पण। सरल शब्दों में हम कहते हैं कि हमारी आत्मा परमात्मा की डोर से बंध गई। परमात्मा के प्रति निष्ठापूर्वक समर्पित होने वाला सच्चा साधक ही भक्त है। जिसके विचारों में शुचिता हो, जो अहंकार से दूर हो, जो किसी वर्ग-विशेष में न बंधा हो, जो सबके प्रति सम भाव वाला हो, सदा सेवा भाव मन में रखता हो, ऐसे व्यक्ति विशेष को हम भक्त का दर्जा दे सकते हैं। इस दौड़ती-भागती और तनावभरी जिंदगी में हम कई बार प्रार्थना में भगवान से भगवान को नहीं मांगते, बल्कि भोग-विलास के कुछ संसाधनों से ही तृप्त हो जाते हैं। जब व्यक्ति दुनियादारी से दूर हटकर अपनी महत्वाकांक्षाओं को नियंत्रित करता है, तभी उसकी चेतना झंकृत होती है और परमात्मा चिंतन में ईश्वरीय भक्ति साकार होने लगती है। जब सब लोग रात में सो जाएं और उस समय भी जिसके मन में परमपिता को पाने की हुंकार उठे, तो समझें वही सच्चा भक्त है।
भक्त सही मायने में सुख और आनंद का पर्याय है। जब आपकी कामना या प्रार्थना राममय हो जाए, तो समझें कि यही भक्ति है। भक्त ही एकमात्र ऐसा है जो हृदय से यदि भगवान को याद करे तो परमपिता भी स्वयं को उसके अधीन कर देते हैं। इसलिए कहा भी गया है कि सच्ची भक्ति से भगवान भी भक्त के वश में हो जाते हैं। भक्तिभाव का आधार प्रेम, श्रद्धा और समर्पण है।
राम ने शबरी के जूठे किए बेर भी प्रेम और भक्तिभाव के कारण खाए थे। मन में भक्ति भाव के उठने के बाद भक्त के व्यक्तिव के नकारात्मक गुण दूर हो जाते हैं और उसके व्यक्तित्व का उन्नयन होने लगता है। भक्त अहंकार से मुक्त होकर अपनी अंतस चेतना में ईश्वर की अनुभूति करने लगता है।
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