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जिंदगी की जंग लड़ रहे 30 महीने के बच्चे का फेफड़ा धोकर चिकित्सकों ने बचाई जान

locationबैंगलोरPublished: Jun 19, 2021 11:07:35 am

Submitted by:

Nikhil Kumar

– कर्नाटक के चिकित्सकों का दावा : इस जटिल प्रक्रिया से गुजरने वाला देश का सबसे छोटा और दुनिया का दूसरा बच्चा

जिंदगी की जंग लड़ रहे 30 महीने के बच्चे का फेफड़ा धोकर चिकित्सकों ने बचाई जान

बेंगलूरु. फफड़ों की दुर्लभ और जानलेवा बीमारी पल्मोनरी अल्वीओलर प्रोटीनोसिस (पीएपी) के कारण मौत से जिंदगी की जंग लड़ रहे 30 माह के बच्चे के फेफड़ों को दूसरी बार पूरी तरह से धोकर (Doctors at Aster CMI Hospital wash the lungs of a 30 month old toddler to restore his breathing) शहर के निजी अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे नई जिंदगी दी। पूरी प्रक्रिया को बर्तन धोने के रूप में भी समझ सकते हैं।

एस्टर सीएमआइ में पीडियाट्रिक पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. श्रीकांत जे. टी. ने बताया कि बाल मरीज हरिचंद्र तेलंगाना के नलगोंडा जिले का निवासी है। 18 माह की उम्र में हरिचंद्र पहले भी इस प्रक्रिया से गुजर चुका है। उस समय हरिचंद्र इस जटिल प्रक्रिया से गुजरने वाला देश का सबसे छोटा और दुनिया का दूसरा बच्चा था। इसी समस्या के कारण वह इस वर्ष 30 मई को दूसरी बार अस्पताल में भर्ती हुआ। अगले दिन गर्म खारा पानी से पूरे फेफड़ों को धोकर जमा अतिरिक्त प्रोटीन निकाला गया। इस अतिरिक्त प्रोटीन के कारण हरिचंद्र ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था। पूरी प्रक्रिया करीब छह घंटे तक चली। इस दौरान वह वेंटिलेटर पर था। उपचार के दो दिन बाद वह सामान्य रूप से सांस लेने लगा। प्रोटीन के फिर से जमा होने की संभावना के कारण उसे फिलहाल निगरानी में रखा गया है।

उन्होंने बताया कि हरिचंद्र एक वर्ष की उम्र से ही निमोनिया से जूझ रहा था। 16 माह की उम्र में वह ऑक्सीजन पर निर्भर हो गया और उसे प्रति मिनट दो से तीन लीटर ऑक्सीजन की आवश्यकता होती थी। गृह जिले में निमोनिया का उपचार हुआ लेकिन समय के साथ हालत खराब होती चली गई। जब उसे अस्पताल लाया गया तब वह ठीक से सांस नहीं ले पा रहा था। उसे लगातार खांसी और सांस फूलने की शिकायत थी। वह प्रति मिनट 50 बार सांस ले रहा था। आम तौर पर बच्चे प्रति मिनट 20-30 बार सांस लेते हैं। ऑक्सीजन का स्तर आमतौर पर 95 से ऊपर के बदले 75 था।

ऐसे होती है क्रायोबायोप्सी
डॉ. श्रीकांत ने बताया कि फेफड़े की क्रायोबायोप्सी की गई। क्रायोप्रोब का प्रयोग रिजिड अथवा फ्लेक्सिबल ब्रान्कोस्कोप के माध्यम से किया जाता है। क्रायोबायोप्सी में इस्तेमाल होने वाले क्रायोप्रोब को अति ठण्डा करने के लिए कार्बनडाईआक्साइड एवं नाइट्रस आक्साइड गैसों का प्रयोग किया जाता है। जैसे ही क्रायोप्रोब ऊतको के सम्पर्क में आता है, ऊतक क्रायोप्रोब से चिपक जाते हंै। इसके बाद प्रोब को ब्रान्कोस्कोप सहित फेफड़े से बाहर निकाल लिया जाता है और निकाले गए बायोप्सी के टुकड़े को उचित माध्यम में जांच के लिए रख लिया जाता है। रिपोर्ट में पीएपी (Hereditary Primary Pulmonary Alveolar Proteinosis – PAP) की पुष्टि हुई। हरिचंद्र दुनिया में क्रायोबायोप्सी प्रक्रिया से गुजरने वाला सबसे छोटा बच्चा है।

यह है बीमारी
फेफड़ों (lungs) से जुड़ी एक दुर्लभ स्थिति है। इसमें फेफड़ो की वायुु थैली (अल्वीओली) में प्रोटीन, वसा और अन्य पदार्थों (सर्फेक्टेंट) का निर्माण होने लगता है। अल्वीओली फेफड़े का वो भाग है जिसमें हवा होती है।

सर्फेक्टेंट फेफड़ों पर एक परत बनाता है। पीएपी की समस्या तब विकसित होती है जब सर्फेक्टेंट की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक हो जाती है और फेफड़ों के वायु मार्ग को अवरोधित कर देती है। फेफड़ों से खून में ऑक्सीजन पहुंचने की प्रक्रिया बाधित हो जाती है। सांस लेने में दिक्कत होने लगती है। हालांकि, पीएपी के सटिक कारणों का पता नहीं है। शोध जारी है। दुनिया भर में एक लाख लोगों में से यह बीमारी किसी एक को प्रभावित करती है। यह एक जन्मजात स्थिति है लेकिन आम तौर पर यह वयस्कों में विकसित होती है।

13 माह की छोटी बहन भी चिकित्सकों की निगरानी में
चिकित्सकों ने पूरे परिवार का आनुवंशिक परीक्षण किया। पता चला कि हरिचंद्र की छोटी बहन जब छह माह की थी तब वह भी पीएपी से पीडि़त थी। अब वह 13 माह की है। छोटी बहन चिकित्सकों की निगरानी में है। हालांकि, उसके फेफड़ों में अभी तक प्रोटीन जमा होने के कोई लक्षण नहीं दिखे हैं।

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