उन्होंने कहा कि हमारे प्रवचन का विषय भी ऐसा दो वरदान है। वरदान स्वरूप गुरु ने अपने शिष्यों को साधकों को तीन वरदान दिए। सर्वप्रथम वरदान दिया सेवा। सेवा के द्वारा आत्मभाव को जागृत करना। सेवा में सर्वप्रथम सेवा माता-पिता की सेवा हो, द्वितीय गुरुओं की सेवा हो, तृतीय संघ समाज की सेवा हो।
उन्होंने कहा कि जो सहज भाव स,े सरल, शांत भाव से, उदार हृदय से सेवा करता है, वह आत्मा महान बन जाती है। दूसरा वरदान गुरु से मांगा गया, सुमिरन। परमात्मा का, प्रभु का, भगवान का माता पिता का नित्य प्रति सुमिरन करना चाहिए। सुमिरन से बुद्धि निर्मल होती है, विचार शुद्ध होते हैं, कार्य सिद्ध होते हैं। ऐसा दूसरा वरदान प्राप्त हो।
तीसरा वरदान मांगा संत समागम का। संतों का समागम करना, सत्संग का अवसर लेना अति दुर्लभ और बहुत कठिन है। उन्होंने कहा कि पुण्यवान भाग्यवान जीव के यहां पर साधु संतों का समागम होता है। इस अवसर पर श्रुत मुनि ने महामांगलिक भी सुनाई।
लक्ष्मीचंद आच्छा, प्रवीण कुमार आच्छा, पदमकुमार आच्छा, पुष्पा कंवर आच्छा, संतोष बाई आच्छा, कीमा बाई चोपड़ा, भंवरीबाई, ललित श्रीश्रीमाल, शांतिलाल भंडारी, जयचंद, लता कांकलिया, बबिता मूथा सहित अनेक लोग उपस्थित थे।