जैन दर्शन में इद्रियों के विषय में स्थूलभद्र का सर्वश्रेष्ठ उदारहण आता है। मान, माया, लोभ, अहंकार, तिरष्कार, वासना एवं क्रोध का भाव आंखों में साफ छलकता है। जो इनके चक्कर में पड़ता है वह अज्ञान का अंधा कहा जाता है। संसार का अंधा भी कहा जाता है। मुनि ने कहा कि ठाणांग सूत्र में चार प्रकार के चक्षु बताए गए हैं।
चर्म चक्षु, विचार चक्षु, विवेक चक्षु एवं श्रद्धा चक्षु। चर्म चक्षु सभी जीवों को निश्चित स्थान पर मिला है। विचार चक्षु द्रव्य, वस्तु या दृश्य को देखने से उत्पन्न होता है।
विवेक चक्षु से विचारों का विवेक रखना होता है एवं श्रद्धा चक्षु धर्म के अनुसार अनुसरण करना है। विचारों में उज्ज्वलता होनी चाहिए। रमेश कुमार नंगावत, कुसुमबाई बाबेल ने 6 की तपस्या के पच्चखाण लिए। संचालन भैरुलाल कोठारी ने किया।
क्रोध आत्मा का प्रबल शत्रु
बेंगलूरु. हनुमंतनगर जैन स्थानक में विराजित साध्वी सुप्रिया ने बुधवार को प्रवचन में कहा कि क्रोध आत्मा का प्रबल शत्रु है। जब तक क्रोधादि पूर्ण रूप से शांत नहीं होते एवं कषायों की उपशांतता नहीं होती तब तक कितनी भी साधना कर लें मोक्ष नहीं मिलता। कषायों के सेवन से आत्मा मलीन होती है। व्यक्ति कषायों के वश में अनंत काल तक संसार में परिभ्रमण करते रहता है। जब हमारी इच्छा के अनुकूल कार्य नहीं होता है तब मन के भाव बिगडऩे लगते हैं। व्यक्ति क्रोधावेश में आ जाता है। क्रोध में कभी-कभी व्यक्ति आत्महत्या जैसा जघन्य कदम भी उठा लेता है। सच्चा साधक वही है जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सहनशीलता का भाव बनाए रखता है। अनेक तपाराधकों ने ४, ५, ९, १४ आदि उपवास के प्रत्याख्यान ग्रहण किए। साध्वी सुमित्रा ने सागरदत्त चरित्र का वांचन किया। संचालन संजय कुमार कचोलिया ने किया।
जीवन में संयमबद्धता नितांत आवश्यक
बेंगलूरु. विल्सन गार्डन शांतिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर में आर्यिका विनिव्रता ने बुधवार को उत्तम धर्म की महत्ता बताई। उन्होंने कहा कि संयम के अभाव में मन चंचल है। आत्मा भटक रही है। राग-द्वेष लगे हुए हैं। संयम के अभाव में आत्मा अधोगति की पात्र बनी हुई है। संयम के अभाव में ही बाहर की यात्राएं हो रही हैं।
जीवन में संयमबद्धता नितांत आवश्यक है। आध्यात्मिक व्यव्सथा संयमबद्ध है। राजनैतिक व्यवस्था नियमबद्ध है। संयम की प्रतिकूलता में महादुख और अनुकूलता में महासुख है। इसलिए सिद्धत्व पाना है तो संयम को अपनाएं।