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डेढ़ साल में तीन मुख्यमंत्री, अब आगे क्या होगा कर्नाटक में..

locationबैंगलोरPublished: Dec 09, 2019 01:20:40 am

Submitted by:

Jeevendra Jha

सत्ता में आने के बाद येडियूरप्पा के लिए यह पहली और निर्णायक राजनीतिक परीक्षा है।

फैसला आज : क्या कर्नाटक में बनी रहेगी चार महीने पुरानी भाजपा सरकार या दुहराएगा महाराष्ट्र

फैसला आज : क्या कर्नाटक में बनी रहेगी चार महीने पुरानी भाजपा सरकार या दुहराएगा महाराष्ट्र

बेंगलूरु. करीब डेढ़ साल में दूसरा मौका है जब मतदाताओं का फैसला राज्य की राजनीतिक स्थिति को तय करने में निर्णायक साबित होगा। पिछले साल अप्रेल-मई में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी लेकिन ख्ंाडित जनादेश के कारण बहुमत के लिए जरुरी 112 के जादुई आंकड़े से दूर रह गई। विधानसभा चुनाव परिणाम आने के साथ ही आने के साथ ही कांग्रेस और जद-एस ने गठबंधन का ऐलान कर दिया था। भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए बने इस गठबंधन में कांग्रेस ने बड़ी पार्टी होने के बावजूद मुख्यमंत्री पद का जद-एस के लिए छोड़ दिया।
कांग्रेस आलाकमान और जद-एस प्रमुख व पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की इस गठबंधन के पीछे बड़ी भूमिका थी। गठबंधन ने सरकार बनाने का दावा भी पेश किया लेकिन सबसे बड़ी पार्टी होने के कारण भाजपा को ही पहले सरकार बनाने का मौका मिला। शपथ ग्रहण से पहले ही मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। देश के इतिहास में पहली बार आधी रात के बाद शीर्ष अदालत का दरवाजा राजनीति से जुड़े किसी मसले पर सुनवाई के लिए खुला। सुबह तक चली सुनवाई के बाद अदालत ने येडियूरप्पा के शपथ ग्रहण समारोह पर रोक लगाने से मना कर दिया।
येडियूरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली लेकिन शीर्ष अदालत ने उन्हें बहुमत साबित करने के लिए मिली अवधि में कटौती कर दी। इसके बाद बहुमत के लिए संख्या बल नहीं होने के कारण विश्वासमत प्रस्ताव मतदान से पहले ही त्याग पत्र दे दिया। इसके बाद गठबंधन के नेता एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। कुमारस्वामी दूसरी बार इस गद्दी पर आसीन हुए थे। पहले भाजपा के साथ गठबंधन में कुमारस्वामी 20 महीने मुख्यमंत्री रह चुके थे।
परस्पर प्रतिद्वंदी दलों के बीच गठबंधन के कारण पहले ही दिन से कुमारस्वामी सरकार के स्थायीत्व को लेकर कयास लगाए जा रहे थे। विश्लेषकों का आकलन था कि पुराने मैसूरु क्षेत्र में दोनों दलों ही राजनीति की मुख्य ध्ुारी रहे हैं, ऐसे में वैचारिक मतभेद सरकार के लिए खतरा बन सकते हैं। अधिकांश विश्लेषकों का आकलन था कि लोकसभा चुनाव के बाद सरकार पर संकट के बादल मंडरा सकते हैं। संयोगवश, गठबंधन सरकार के सत्ता में आने के करीब एक साल बाद ही आम चुनाव हुए। अप्रेल-मई में हुए लोकसभा चुनाव में गठबंधन के दोनों घटकों को आपसी मतभेदों की कीमत चुकानी पड़ी। दोनों ही दल एक-एक सीट ही जीत पाए और भाजपा की झोली में 25 सीटें चली गईं। मण्ड्या सीट पर भाजपा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार अभिनेत्री सुमालता जीतीं। लोकसभा चुनाव के बाद गठबंधन के घटकों के बीच रिश्ते बिगडऩे लगे। गठबंधन में उभरी गांठें सरकार के अस्तित्व के लिए खतरा बन गई। कांग्रेस के नेताओं का एक खेमा पहले ही जद-एस से गठबंधन को लेकर नाराज था। चुनाव में हार के बाद इस असंतुष्ट खेमे को मौका मिल गया। भाजपा भी सत्ता से दूर होने के कारण ऐसे मौके के इंतजार में थी। बढ़ते गठबंधन में बढ़ते असंतोष को भाजपा ने भी परोक्ष तौर पर हवा दी। हालांकि, इस बार भाजपा ने ऑपरेशन कमल के बजाय सदन में संख्या बल घटाने का दांव खेला। बेंगलूरु से मुंबई तक चले राजनीतिक नाटक के बाद कुल मिलाकर दोनों दलों के १७ विधायकों ने त्याग-पत्र दे दिए और कुमारस्वामी सरकार अल्पमत में आ गई। इसी बीच, दोनों दलों ने बागी विधायकों को अयोग्य ठहराने की अपील विधानसभा अध्यक्ष से की। कुमारस्वामी सरकार विश्वास मत हासिल करने से पहले एक बार फिर बागी विधायकों के इस्तीफे का मामला शीर्ष अदालत तक गया।
इस बीच, तत्कालीन अध्यक्ष केआर रमेश कुमार ने त्याग पत्र देने वाले विधायकों को अयोग्य करार दिया। इसके बाद कुमारस्वामी सरकार का पतन हो गया। विधानसभा के सदस्यों की संख्या घटने के बाद भाजपा के पास साधारण बहुमत के लिए संख्या बल था और येडियूरप्पा की सरकार बन गई। सत्ता में आने के बाद येडियूरप्पा के लिए यह पहली और निर्णायक राजनीतिक परीक्षा है।
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