देश में सूखे के हालात पैदा करती हैं उत्तर अटलांटिक वायु धाराएं
अलनीनो के कारण ही नहीं पैदा होते सूखे के हालात
पिछली शताब्दी में 50 फीसदी सूखे की वजह उत्तर अटलांटिक वायु धाराएं
आइआइएससी का महत्वपूर्ण अध्ययन

बेंगलूरु.
एक महत्वपूर्ण शोध में भारतीय विज्ञान संस्थान (आइआइएससी) के वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि देश में मानसून की विफलता का कारण केवल अलनीनो नहीं है। पिछली शताब्दी में लगभग 50 फीसदी मानसून की विफलता और देश में सूखे का बड़ा कारण उत्तर अटलांटिक वायु धाराएं रहीं हैं।
आइआइएससी के वायुमंडलीय और महासागरीय विज्ञान केंद्र (सीएओएस) के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए इस अधययन के अनुसार पिछली शताब्दी में देश में 23 बार सूखा पड़ा और इनमें 10 बार ऐसा हुआ जब उसमें अलनीनो का प्रभाव नहीं था। एक अरब से अधिक आबादी ग्रीष्मकालीन मानसून पर निर्भर है जो जून और सितंबर के बीच देश में प्रचूर वर्षा लाती है। जब मानसून विफल होता है तो देश का अधिकांश भाग सूखे की चपेट में आ जाता है। अमूमन इसका कारण अलनीनो को माना जाता है जो कि एक गर्म जलधारा है जो भारतीय उपमहाद्वीप में नमी से भरे मानसूनी बादलों को खींच लेती है।
मध्य जून से दिखने लगता है अलनीनो का असर
आइआइएससी के अध्ययन से पता चलता है कि जब अलनीनो का प्रभाव होता है तो उसका असर मध्य जून से पहले ही दिखने लगता है। यह उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है और मध्य अगस्त तक पूरे भारत में औसत बारिश में भारी कमी आ जाती है। वहां से रिकवरी की कोई उम्मीद नहीं होती है और देश सूखे की चपेट में आ जाता है। आइआइएससी में एसोसिएट प्रोफेसर वी.वेणुगोपाल ने कहा कि 1980 के दशक की शुरुआत में लोगों ने सूखे की इस घटना को एक विशेष घटनाक्रम के तौर पर देखा। अन्य घटनाक्रमों से तुलनात्मक अध्ययन नहीं किया गया। यह समझा गया कि सूखे का कारण अलनीनो है जो अलग-अलग प्रकार से विकसित हो सकता है।
उत्तरी अटलांटिक विक्षोभ में भी पैटर्न
हैरानी की बात है कि, अलनीनो की तरह ही उत्तरी अटलांटिक वायुमंडलीय विक्षोभ में एक पैटर्न होता है। इस दौरान जून महीने में औसत से काफी कम बारिश होती है। इसके बाद मध्य जुलाई से मध्य अगस्त के बीच ऐेसा लगता है कि मानसून रिकवर कर रहा है क्योंकि, इस दौरान बारिश बढ़ जाती है। हालांकि, अगस्त के तीसरे सप्ताह में अचानक बारिश में गिरावट आती है और अंतत: देश में सूखे के हालात पैदा हो जाते हैं।
मानसून को दबा देती है 'रॉस्बी'
आइआइएससी के एसोसिएट प्रोफेसर जय सुखात्मे ने कहा कि शोध के दौरान इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश हुई कि अगस्त के तीसरे सप्ताह में अचानक मानसून क्यों कमजोर पड़ जाता है। वह कौन सी प्रणाली अथवा एजेंट है जो भारत को प्रभावित करता है। इसके लिए गैर-अलनीनो वर्षों के दौरान प्रचलित हवाओं के बारे में अध्ययन किया गया तो मध्य अक्षांस में असामान्य वायुमंडलीय विक्षोभ का पता चला। यह असामान्य रूप ठंडे उत्तर अटलांटिक महासागर के ऊपर गहरे चक्रवाती परिसंचरण के कारण पैदा होता है। इससे उत्पन्न वायु धाराएं 'रॉस्बी' कही जाती हैं जो उत्तरी अटलांटिक से नीचे की ओर गिरती हैं और भारतीय उपमहाद्वीप को प्रभावित करती हैं। यह धाराएं जून में आई वर्षा में गिरावट के बाद उबर रहे मानसून को दबा देती हैं और देश में सूखे की ेस्थिति पैदा हो जाती है। अमूमन यह हवाएं विषुवत रेखा की ओर नहीं बल्कि पश्चिम से पूरब की ओर बहती हैं।
मध्य अक्षांस पर ध्यान केंद्रीत करने की जरूरत
वैज्ञानिकों ने कहा है कि भारतीय मानसून के प्रभावों का अध्ययन करने के लिए उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के बाहरी तत्वों पर भी गौर करना होगा। वेणुगोपाल ने कहा कि भारतीय मानसून और सूखे के अध्ययन में हिंद और प्रशांत महासागर को प्रमुखता दी जाती है। लेकिन, यह समय है जब मध्य अक्षांस से पडऩे वाले प्रभावों पर भी ध्यान केंद्रीत किया जाए। इससे मानसून की परिवर्तनशीलता और भविष्यवाणी को बेहतर किया जा सकता है।
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