फिलहाल, यहां पर गुरुवार को मनाए जाने वाले श्रीकृष्ण जन्मोत्सव की तैयारियां जोरों पर हैं। जन्माष्टमी को यहां ‘लीलोत्सवÓ भी कहा जाता है। कोरोना के कारण दो साल के बाद विशाल पैमाने पर मनाए जा रहे जन्मोत्सव को लेकर उडुपी की नयनाभिराम सजावट श्रद्धालुओं का स्वागत कर रही है। मंदिर को खूबसूरती से सजाया गया है। कलाकार ‘पुलियाटमÓ नामक पारम्परिक नृत्य की तैयारियों में जुटे हुए हैं। जन्मोत्सव के दिन प्रस्तुति देना है और यह मौका रोज-रोज नहीं आता।
यहां भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति को परम्परा के विपरीत पश्चिम की ओर मुंह करके रखा गया है। सुबह गर्भगृह में पुजारी भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक करते हैं। पहले दूध से अभिषेक होता है बाद में दही से भोग लगाया जाता है। मंत्रोच्चार के बीच शंख से गिरता हुआ दूध कान्हा की प्रतिमा पर पड़ता है। गुड़, केला के भोग के बाद नारियल पानी से अभिषेक होता है। ढोल, नगाड़ों, मंजीरों की खनक के बीच आरती की जाती है। मूर्ति की सजावट के बाद भक्त नौ छिद्रों से पूजा-अर्चना करते हैं। इसे नौ ग्रह खिड़की के नाम से जाना जाता है।
मंदिर में दक्षिणी द्वार पर एक पुष्करिणी है। पूर्व द्वार पर भगवान विष्णु की एक पंचधातु की मूर्ति है। यह द्वार केवल विजयदशमी के दिन खुलता है। ‘देवकी नंदन नंद कुमारा…Ó गीत गूंज उठते हैं और वृंदावन आरती होती है। उषाकाल पूजा से लेकर शयनोत्सव पूजा तक भक्त और भगवान का अलौकिक संबंध लौकिक बनकर श्रद्धा भक्ति के रूप में दिखाई देता है।
जन्मोत्सव के दिन उडुपी की सड़कें भगवान श्रीकृष्ण के स्वर्ण रथ की गवाह बनती हैं। यह रथ श्रद्धालु खींचते हैं और स्वयं को धन्य मानते हैं। भक्तों की सांस्कृतिक प्रस्तुतियां स्वर्ण रथ की यात्रा का अभिन्न अंग बन जाती हैं। जन्माष्टमी पर शेर के रूप में सजे लोग धार्मिक नृत्य करते हैं। दक्षिण भारत के सबसे पवित्र तीर्थस्थलों में से एक है।
राज्य के अन्य कृष्ण मंदिरों में भी जन्माष्टमी की धूम रहती है। बेंगलूरु स्थित इस्कॉन मंदिर, १२वीं सदी में मैसूरु में स्थापित वेणुगोपाल स्वामी मंदिर, मेंगलूरु स्थित गोपालकृष्णा मंदिर, 15वीं सदी में हम्पी में स्थापित बालकृष्ण मंदिर में ‘जय राधा माधव जय कुंज बिहारी’ के जयकारों के बीच श्रध्दालु पूजा-अर्चना करते हैं।