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जटिल जातीय समीकरण में उलझ गया गुजरात फार्मूला

locationबैंगलोरPublished: May 18, 2023 06:39:42 pm

Submitted by:

Rajeev Mishra

टिकट कटे तो बागियों ने ठोक दी ताल, भाजपा को हुआ नुकसान
स्थानीय नेताओं और स्थानीय मुद्दों की अनदेखी पड़ी भारी

gujrat formula

भाजपा का लक्ष्य हुआ तैयार, अबकी बार 180 पार

बेंगलूरु.

सत्ता विरोधी लहर से निपटने के लिए गुजरात में भाजपा ने कई पुराने चेहरों की जगह नए उम्मीदवार उतारे और शानदार जीत दर्ज की। चुनाव की कमान पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के हाथ रही।
कर्नाटक में भी पार्टी ने सत्ता के खिलाफ आक्रोश और कांग्रेस के उठाए मुद्दों से निपटने के लिए वहीं फार्मूला अपनाने की कोशिश की। लेकिन, कर्नाटक के जटिल जातीय समीकरणों में वह फार्मूला उलझकर रह गया। भाजपा ना तो पूरी तरह गुजरात फार्मूला अपना पाई और ना ही राज्य की विशिष्टता को ध्यान में रखकर प्रभावशाली रणनीति तैयार कर पाई। कई अहम मुद्दों पर केंद्रीय नेतृत्व ने प्रदेश नेताओं की चेतावनी को नजरअंदाज किया तो कई जगह अपने मजबूत पक्ष को भी भुला किया। कुछ रणनीतियां प्रदेश के हिसाब से बनीं और कुछ गुजरात फार्मूले पर। भाजपा न सिर्फ सत्ता गंवाई बल्कि लिंगायतों के उसके आधार वोट बैंक में भी सेंध लगी।
चुनावों से पहले भाजपा ने दो साहसिक कदम उठाए। पहला, राज्य की बागडोर संभालने वाले दिग्गज लिंगायत नेताओं पर निर्भरता कम करने की और दूसरा, गुजरात की तरह वरिष्ठ नेताओं को टिकट नहीं देने की। लेकिन, ये दोनों ही निर्णय पार्टी के खिलाफ गए। दक्षिण का द्वार अगर भाजपा के लिए खुला तो उसके पीछे सबसे बड़ा हाथ लिंगायत समुदाय का रहा जिसने पार्टी का हमेशा साथ दिया। लिंगायत समुदाय को पता होता था कि, अगर वे भाजपा के साथ खड़े हैं तो मुख्यमंत्री उन्हीं के समुदाय का नेता होगा। यह पहला अवसर था जब पार्टी ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार चुनावों से पहले घोषित नहीं किया। बीएस येडियूरप्पा के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और इस्तीफा देते वक्त उनकी आंखों से आंसू निकलने का बड़ा संकेत लिंगायत समुदाय में गया। बसवराज बोम्मई के मुख्यमंत्री बनने के बाद से लेकर चुनाव करीब आने तक येडियूरप्पा नजरअंदाज रहे। केंद्रीय नेताओं ने पूरी तरह बागडोर अपने हाथों में ले लिया। लेकिन, जब महसूस हुआ कि, इसका चुनावों में नुकसान होगा तो येडियूरप्पा को भाजपा संसदीय बोर्ड का सदस्य बनाया। लेकिन, तब तक काफी देर हो चुकी थी। लिंगायत मतदाता कांग्रेस की ओर खिसक गए।
टिकट बंटवारे में भी भाजपा ने दूरदर्शिता नहीं दिखाई। जहां एक तरफ कांग्रेस ने प्रदेश के जातीय समीकरणों को ध्यान में रखकर 91 वर्षीय लिंगायत नेता शमनूर शिवशंकरप्पा को टिकट दिया तो दूसरी तरफ, भाजपा ने 70 साल से भी कम उम्र के कई नेताओं के टिकट काट दिए। भाजपा ने 21 वर्तमान विधायकों के टिकट काटे। भले ही पूर्व मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टर धारवाड़ (मध्य) से चुनाव हार गए लेकिन, लक्ष्मण सवदी और शेट्टर के पार्टी छोडऩे का गलत संदेश लिंगायत समुदाय में गया। कांग्रेस लिंगायतों के अपमान की नैरेटिव लेकर उत्तर कर्नाटक में गई और उसका उसे लाभ मिला। दूसरी तरफ, टिकट नहीं मिलने से नाराज भाजपा नेता बागी हो गए। पार्टी उन्हें मनाने में लाचार नजर आई और नाकाम हुई। अंतत: बागी नेताओं ने भाजपा के ही वोट काटे।
गुजरात की तरह ही भाजपा ने पूरे चुनाव को नरेंद्र मोदी के चेहरे पर केंद्रीत किया। स्थानीय मुद्दों से ज्यादा केंद्रीय कार्यक्रमों को तरजीह दी गई। केंद्रीय नेताओं के चुनाव प्रचार में बीएस येडियूरप्पा और मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई का जिक्र काफी कम हुआ। गुजरात, मध्यप्रदेश और उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तरह हिंदुत्व की भावना को प्रमुखता दी गई जिसका यहां उलटा असर हुआ। धु्रवीकरण का फायदा कांग्रेस को अधिक मिला और पार्टी तटीय कर्नाटक के मजबूत गढ़ में भी पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा पाई। वहीं, राज्य के मतदाताओं ने स्थानीय और केंद्रीय मुद्दों में फर्क को समझा और उसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा।
अहम बिंदु

38 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा ने एक-दूसरे के खिलाफ लिंगायत उम्मीदवार उतारे

कांग्रेस को 29 सीटों पर मिली जीत, भाजपा को सिर्फ 8 सीटें हाथ लगीं

2018 में इनमें से 21 सीटें भाजपा, 14 कांग्रेस को मिली थीं
इन 38 सीटों पर कांग्रेस को भाजपा से 7 फीसदी अधिक मत मिले

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