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कर्नाटक विधानसभा चुनाव में परंपरा बदलेगी या इतिहास

locationबैंगलोरPublished: Apr 11, 2018 01:21:12 am

राज्य और केंद्र में एक साथ नहीं रही किसी पार्टी के पास गद्दी …

vidhan soudha
बेंगलूरु. राज्य के मतदाता राष्ट्रीय रुझानों के विपरीत चलते रहे हैं। यहां किसी राजनीतिक लहर का असर चुनावों पर नहीं पड़ा और राज्य की जनता ने अलग ही फैसला लिया। चाहे 1977 के जनता लहर, 1980 में इंदिरा या उसके बाद राजीव अथवा मोदी लहर की बात हो, राज्य का जनादेश राष्ट्रीय रुझानों के विपरीत ही रहा। राज्य की जनता केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी को सत्ता नहीं सौंपती। पिछले चार दशकों में किसी पार्टी को एक गद्दी मिली तो दूसरी खिसक जाती है। पिछले छह विधानसभा चुनावों में जनता ने किसी पार्टी को दुबारा सत्ता नहीं दी।
1978 : अर्स के नेत़ृत्व में कांग्रेस लौटी
इस रुझान की शुरुआत 1978 से हुई। सालभर पहले जनता लहर में कांग्रेस दिल्ली की गद्दी से बेदखल हो चुकी थी लेकिन कर्नाटक की जनता ने देवराज अर्स के नेतृत्व में कांग्रेस को दो-तिहाई बहुमत के साथ सत्ता सौंपी थी। कांग्रेस को विधानसभा की २२४ में से १४९ सीटें मिली जबकि जनता पार्टी ५९ सीटों के साथ दूसरे स्थान पर रही थी।
1983 : बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार
1983 में हुए अगले विधानसभा चुनाव से पहले इंदिरा गांधी राजनीतिक फलक पर वापसी कर चुकी थीं और कांग्रेस आसान जीत की उम्मीद कर रही थी लेकिन राज्य के मतदाताओं ने खंडित जनादेश दिया और रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में भाजपा के 18 विधायकों व निर्दलियों के समर्थन से पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी। कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ा। जनता पार्टी को ९५ और कांग्रेस को ८२ में सीटें मिली थी। २२ सीटें निर्दलियों के खाते में गई थी। पहली बार राज्य के मतदाताओं ने खंडित जनादेश दिया था।
1985 : जनता पार्टी को पूर्ण बहुमत
पहली बार राज्य में विधानसभा के मध्यावधि चुनाव 1985 में हुए। दो साल पुरानी जनता पार्टी की सरकार को लोकसभा चुनाव में करारा झटका लगा। राजीव गांधी के लहर में कांग्रेस ने राज्य की २८ में से २४ लोकसभा सीटें जीती थी और जनता पार्टी को सिर्फ ४ सीटें मिली थी। लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन के कारण मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने विधानसभा भंग करवाकर नया जनादेश लेने का फैसला किया था।
कांग्रेस को राजीव लहर से उम्मीद थी लेकिन जनता ने इस बार हेगड़े को पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता सौंपी और यह परंपरा कायम रही कि केंद्र में काबिज पार्टी को राज्य में सत्ता नहीं मिलती।
1989 : 19 साल बाद पाटिल फिर बने सीएम
हेगड़े ने 1986 में उच्च न्यायालय की सरकार की खिंचाई करने के बाद पद से त्याग पत्र दे दिया था लेकिन तीन बाद वापस ले लिया था। फोन टैपिंग का आरोप लगने के बाद अगस्त १९८८ में हेगड़े ने इस्तीफा दे दिया और एस आर बोम्मई मुख्यमंत्री बने। लेकिन केंद्र की सरकार ने छह महीने से कम समय में ही बोम्मई को बर्खास्त कर विधानसभा भंग कर दी और इसके कारण मध्यावधि चुनाव हुआ। 1989 के विधानसभा चुनाव के वक्त केंद्र में जनता दल की सरकार थी तो केंद्र में काबिज पार्टी को सत्ता नहीं देने के रुझान को कायम रखते हुए राज्य के मतदाताओं ने तीन-चौथाई बहुमत के साथ कांग्रेस को जनादेश दिया। कांग्रेस को 178 की सीटें मिली जबकि जनता दल 24 सीटें मिली। लिंगायत समुदाय के नेता वीरेंद्र पाटिल १९ साल बाद फिर मुख्यमंत्री बने लेकिन सिर्फ साल भर के लिए। पाटिल के बाद कांग्रेस ने एस. बंगारप्पा व एम. वीरप्पा मोइली को दो-दो साल के लिए आजमाया।

1994 : वापस लौटा जनता दल
1994 के चुनाव के समय कांग्रेस केंद्र में थी तो राज्य के मतदाताओं ने जनता दल को सत्ता दी। इस वक्त में कांग्रेस के नेतृत्व में पी वी नरसिम्हा राव की सरकार थी। मतदाताओं ने पुराने रुझान को जारी रखते हुए केंद्र में काबिज पार्टी को सत्ता नहीं दी। जनता दल के प्रदेश अध्यक्ष एच डी देवेगौड़ा मुख्यमंत्री बने और दो साल बाद देवेगौड़ा प्रधानमंत्री भी बने। इस जनता दल को ११५, भाजपा को ४० और कांगे्रस को ३४ सीटें मिली।
1999 : पूर्ण बहुमत से कांग्रेस को गद्दी
1999 के चुनाव के वक्त केंद्र में भाजपा नीत राजग सरकार थी और राज्य में कांग्रेस की स्थिति कमजोर थी। फिर भी जनता ने परिपाटी जारी रखते हुए कांग्रेस को ही बागडोर सौंप दी। कांग्रेस को १३२ सीटें मिली जबकि राजग को ६३ सीटें मिली। राजग में भाजपा ४४ और जद (यूा) को १८ सीटें मिली थी जबकि जद (ध) को सिर्फ १० सीटें मिली। इस कांग्रेस ने एस एम कृष्णा को मुख्यमंत्री बनाया।
2004 : दूसरी बार खंडित जनादेश
2004 के चुनाव के वक्त केंद्र में कांग्रेस काबिज थी तो खंडित जनादेश में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। हालांकि, कांग्रेस और भाजपा, दोनों ने जद (ध) के साथ गठबंधन कर सत्ता का सुख भोगा। एन धरम सिंह सरकार के पतन के बाद भाजपा के साथ मुख्सयमंत्री पद पर २०-२० महीने के समझौते के साथ जद (ध) के एच डी कुमारस्वामी ने सत्ता संभाली लेकिन भाजपा को २० महीने बाद सत्ता देने से मना कर दिया और फिर सप्ताह भर के लिए भाजपा को सत्ता दी और सरकार गिर गई।
2008 : भाजपा की पहली सरकार
जद (ध) की वादाखिलाफी से उपजी सहानुभूति के लहर के कारण इस बार जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत दिया और उसकी पहली सरकार बनी। 2008 के चुनाव के वक्त केंद्र में कांग्रेस सत्ता में थी। पांच साल में भाजपा ने तीन बार मुख्यमंत्री बदला
2013 : कांग्रेस फिर लौटी
वर्ष 2013 का विधानसभा चुनाव इस रुझान का अपवाद जरुर था। केंद्र में कांगे्रस की सरकार थी और राज्य में भी कांग्रेस ने साधारण बहुमत के साथ सत्ता में वापस की। हालांकि, साल भर बाद ही लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के कारण कांग्रेस की करारी हार हुई और यह रुझान बना रहा कि कर्नाटक और दिल्ली का बागडोर एक पार्टी के हाथ में नहीं रहता।
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