वर्ष 2008 में जब चंद्रयान-1 भेजा गया तो इसे एक और साधारण मिशन मान लिया गया। क्योंकि हमसे पहले 69 मिशन भेजे जा चुके थे। लेकिन, हमसे पहले जितने भी मिशन भेजे गए उनका निष्कर्ष यहीं था कि चांद की जमीन बंजर है। कुछ मिशनों में Hydrogen की मौजूदगी के संकेत मिले थे। लेकिन, उनकी खोजों में यह मालूम नहीं हो सका कि हाइड्रोजन किस रूप में है। पानी की मौजूदगी का कोई ठोस प्रमाण पूर्व के मिशनों में नहीं मिला। यह भारत का पहला चंद्र मिशन ही था जिसने पहले ही प्रयास में चांद के बहिर्मंडल, moon के सतह और चांद के उप-सतह पर पानी की मौजूदगी के प्रमाण दिए। भारतीय मिशन द्वारा चांद पर पानी की खोज के बाद फिर से चांद की खोज के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दौड़ शुरू हो गई।
चंद्रयान-2 मिशन चंंद्रयान-1 के निष्कर्षों पर मुहर लगाएगा। इस मिशन में हम चांद के दक्षिणी धु्रव पर lander उतारेंगे। चांद के दक्षिणी धु्रव पर अभी तक कोई देश नहीं पहुंचा है। यह ऐसा क्षेत्र है जिसे एक्सप्लोर किया जाना अभी बाकी है। पहले मिशन में हमने PSLV rocket का उपयोग किया था लेकिन इस मिशन को लांच करने के लिए हम सबसे वजनी GSLV MARK-3 Rocket का प्रयोग कर रहे हैं। इस बार चांद पर लैंड करने के अलावा आर्बिटर भी एक निश्चित ऊंचाई से अध्ययन करेगा। एक rover चांद की सतह पर उतरेगा और चहलकदमी करते हुए 14 दिनों तक विभिन्न प्रयोगों को अंजाम देगा। भले ही इस बार हम अधिक ताकतवर रॉकेट का उपयोग कर रहे हैं लेकिन चांद तक पहुंचने के लिए आर्बिट मैनुवर चंद्रयान-1 के समान ही होगा। चांद की कक्षा में पहुंचने का तरीका चंद्रयान-1 जैसा ही रहेगा। 1960 के दशक में हमने एक साधारण शुरुआत की थी। इसके बावजूद किस तरह महत्वपूर्ण तकनीकों में महारत हासिल कर ली और लगातार innovation करते जा रहे हैं? प्रारंभिक चरणों में विभिन्न विदेशी एजेसियों ने हमें बुनियादी सहायता और training दिया। लेकिन, जैसे ही इसरो नामक बीज अंकुरित हुआ उन्होंने हमें छोड़ दिया। हाइ-इंड तकनीकों से हमें वंचित रखा गया और अंधेरे में धकेल दिया गया। इसके बाद Indian Space Programs की सफलता के लिए हमें सभी प्रमुख तकनीकों का स्वदेशी विकास करना जरूरी था।
हम जिस परिवेश में पले-बढ़े, लालन-पालन हुआ और हमारी जो मानसिकता है यह उसी का परिणाम है। अगर हमारी पढ़ाई अमरीका में होती और हम नासा में प्रशिक्षित होते तो हमारे पास प्रचूर संसाधन होते। लेकिन, यहां हम उसी तकनीक को बेहद कम संसाधनों में हासिल करने की कोशिश करते हैं। हमारा ताल्लुक बेहद साधारण परिवार से है। इसलिए हम सीमित संसाधनों में बड़ी उपलब्धियां हासिल करने के सपने देखते हैं। यह एक सरकारी स्कूल के छात्र और किसी अंतरराष्ट्रीय स्कूल के छात्र को एक ही तरह के काम देने जैसा हो जिसे दोनों ही पूरा करेंगे। अंतर सिर्फ दोनों के तरीके में होगा। इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण यह है कि पश्चिमी देशों के पास बेहद शक्तिशाली रॉकेट हैं जो उपग्रहों को सीधे चांद या अन्य ग्रहों तक पहुंचा सकते हैं जबकि हमारे पास पीएसएलवी और जीएसएलवी जैसे कम ताकतवर (पश्चिमी देशों की तुलना में) रॉकेट हैं लेकिन आर्बिट रेजिंग मैनुवर के जरिए हम वांछित कक्षा में पहुंच जाते हैं।
वर्तमान में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) ही अंतरिक्ष में हमारी एक चौकी (आउटपोस्ट) है। लेकिन, इस अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की ऑपरेशनल समय-सीमा अब खत्म होने वाली है। गहन अंतरिक्ष अनुसंधान के लिए अब हमें एक पड़ाव की आवश्यकता होगी। बुद्धिमानी यह होगी कि एक अन्य अंतरिक्ष स्टेशन विकसित करने की बजाय चांद को ही एक पड़ाव बनाएं और वहां पर बुनियादी सुविधाएं विकसित करें। मंगल तक पहुंचने के लिए चांद को एक पड़ाव बनाया जा सकता है। हमें चांद पर दूरदर्शी स्थापित करने के विकल्पों की भी तलाश करनी चाहिए। ऐसे लूनर स्पेस स्टेशन में भारत की भी सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए क्योंकि अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन का नियंत्रण कुछ ही देशों के हाथ है और भारत उसका सदस्य नहीं है। अगर अंतरिक्ष पर्यटन चांद तक पहुंचता है तो निजी और वाणिज्यिक क्षेत्रों को भी प्रोत्साहन मिलेगा।
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि जब आप कोई महान काम करोगे तो पहले लोग उसे नजरअंदाज करेंगे। फिर हसेंगे, विरोध करेंगे।…और, अंतत: आपका सम्मान करेंगे।