शांति के लिए मानसिक तप जरूरी-देवेंद्रसागर
बैंगलोरPublished: Aug 09, 2020 04:10:03 pm
ऑनलाइन प्रवचन
शांति के लिए मानसिक तप जरूरी-देवेंद्रसागर
बेंगलूरु.भारत जैन महामंडल मुंबई की ओर से आयोजित ऑनलाइन प्रवचन के माध्यम से आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने कहा कि मनुष्य के मन में जब देवत्व व सद्गुणों का पवित्र प्रकाश होता है, जिस कर्म से मनुष्य में दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, उदारता की भावनाएं प्रबल होती है। मन स्वत: प्रसन्नता से भरा रहता है, ये सभी मानसिक कल्याणकारी भाव स्वर्ग की स्थिति कही जाती है। दूसरी मन:स्थिति में मनुष्य उद्वेग, चिंता, भय, तृष्णा, प्रतिशोध, दम्भ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से घिरा रहता है। सामान्यत: कुसंस्कारी और दुर्गुणी मनुष्य अपनी ओछी हरकतों से चिंता, क्रोध, भय, असंतोष, ईष्र्या में इतना दु:खी रहता है कि उसका खुद का जीवन भार स्वरूप हो जाता है। उसकी ये अनुभूतियां नारकीय हो तो कही जाती हैं। इस प्रकार इस संसार में रहते हुए इसी मानव-जीवन में ही उसे स्वर्ग और नरक जैसे सुख-दु:ख प्राप्त हो जाते हैं। जिनकी उच्च कोटि की शुभ कल्याण मय भाव-विचारधारा होती है, उन्हें स्वर्ग की अनुभूति सतत् होती रहती है। प्रश्न उठता है कि इन बंधनों से व्यक्ति कैसे छूटे, जिससे उस जीवन में शांति, प्रेम और तृप्ति की अनुभूति सतत होती रहे।प्रश्न का निराकरण करते हुए आचार्य ने कहा कि इसके लिए मानसिक तप आवश्यक है। व्यक्ति के मन में ही उसका संसार बसता है। अत: मानसिक तप ही वह अस्त्र है, जिसके बल पर व्यक्ति अपने दोष-दुर्गुण, स्वार्थ-संकीर्णता, क्रोध-अहंकार, लोभ-मोह से मुक्त हो सकता है। क्योंकि हमारे प्रगति के पथ पर यही विकार रोड़े अटकाते रहते हैं। हमें समृद्धि से रोकते हैं। इन्हें तोडक़र ही शुचितापूर्ण सात्विक जीवन जिया जा सकता है। हमें गुरु कृपा से ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भी वासनाओं के बीजों को जलाने का प्रयास करना चाहिये। मनुष्य लग्नपूर्वक यह प्रयास करे तो सफलता मिलती है, अंत में आचार्य ने कहा की मन ऐसा सरोवर है, जिसमें अनेक प्रकार की लहरें उठती हैं। मन में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मद की लहरें उठती ही रहती हैं। ये लहरें समुद्र में उठते ज्वार-भाटें की तरह हैं। मन की वृत्तियों का ऊर्जा प्रभाव इस तरह होता है, जैसे धरती के सीने को फोड़ कर कोई ज्वालामुखी बाहर निकल आया हो। व्यक्ति के व्यक्तित्व को हिलाने में ये लहरें पूरी तरह सक्षम हैं, जो व्यक्ति को आदत को गुलाम बना लेती हैं। वह कितना भी बड़ा ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी क्यों न हो। इन आदतों की गुलामी वाली वृत्तियों से मुक्ति के लिए साधना, तप, गुरुकृपा ही काम करती है। इस माध्यम से मनुष्य के कर्म-बीज अंदर से जलते हैं, और तब मनुष्य को शांति मिलती है। शांति आने के बाद मन में उठ रही ये वृत्तियों की आंधियां भी शिथिल हो जाती हैं और जीवन में सद्वृत्तियों का सृजन होता है।