आचार्य ने कहा कि सहनशीलता और असहनशीलता की अभिव्यक्ति का संबंध शरीर, वाणी और मन तीनों के साथ है। शरीर को जिस स्थिति और जिस वातावरण में रखा जाता है, वह वैसा ही बन जाता है। मौसम बदलता रहता है। शरीर हर मौसम को झेल सके, ऐसा अभ्यास होना चाहिए। शरीर की तरह मन को भी सहने का अभ्यास होना आवश्यक है।
मानसिक असहिष्णुता ही तनाव, घुटन, कुंठा, उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता आदि को जन्म देती है। मानसिक असहिष्णुता आपसी मैत्री की सरिता को सुखा देती है। पिता-पुत्र, सास-बहू व देवरानी-जेठानी के झगड़ों की तो बात क्या, पति-पत्नी के रिश्तों के बीच भी दरारें पड़ जाती हैं। आवश्यक है, मानसिक सहिष्णुता का विकास हो। सहिष्णुता का एक प्रकार है वाणी की सहिष्णुता।
जो व्यक्ति वाणी पर अंकुश रखना जानता है, वह असत्य भाषण से तो बचता ही है, आवेश और उत्तेजनापूर्ण भाषा पर भी नियंत्रण कर लेता है। इस तरह शरीर, मन और वचन इन तीनों योगों को साध लिया जाए तो सहिष्णुता का गुण स्वत: विकसित हो जाएगा। सहिष्णुता का विकास चेतना में शांति और आनंद का अवतरण करने वाला सिद्ध होगा।