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मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र : महादयी और लिंंगायत मसला होगा निर्णायक

locationबैंगलोरPublished: Apr 30, 2018 05:57:20 pm

Submitted by:

Rajeev Mishra

मुंबई-कर्नाटक वह इलाका है जो कभी मराठा पेशवा शासकों के अधीन, बाद में ब्रिटिश काल में बॉम्बे प्रेसिडेंसी और आजादी के बाद मुंबई प्रांत में था

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मुंबई-कर्नाटक वह इलाका है जो कभी मराठा पेशवा शासकों के अधीन, बाद में ब्रिटिश काल में बॉम्बे प्रेसिडेंसी और आजादी के बाद मुंबई प्रांत में था और भाषाई आरधार पर राज्यों के बाद पुनर्गठन के बाद कर्नाटक में शामिल हुआ। इस क्षेत्र का सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास विविधताओं से भरा है। पश्विमी घाट से निकलने वाली मलप्रभा नदी बागलकोट जिले के कुडलसंगम में कृष्णा नदी से मिलती है। यह संगम स्थली एक धार्मिक पर्यटन स्थल भी है। यहीं १२ वीं सदी के समाज सुधारक संत बसवेश्वर को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। संत बसवण्णा की लिंगायत समुदाय के संस्थापक भी हैं और यह क्षेत्र लिंगायत बहुल है। लिंगायत मसले के साथ ही पानी का मसला भी यहां प्रमुख मुद्दा है, इसी मतदाताओं का रूख राजनीतिक दलों का भविष्य और सत्ता के समीकरण भी तय करेगा। । कम से कम 30 सीटों पर महादयी मसले का असर दिखेगा।

बेंगलूरु. पानी के संकट से जूझ रहे मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र में इस बार महादयी नदी जल विवाद के साथ ही लिंगायत अलग धर्म का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए परेशानी का सबब बना हुआ। महादयी जल विवाद के समाधान और कलसा-बंडूरी नहर परियोजना को लागू करने की मांग को लेकर चल रहा किसानों का आंदोलन एक हजार दिन से ज्यादा का सफर पूरा कर चुका है।

पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के हाथ से फिसला मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र फिर एक बार नई सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभाने को तैयार है। किसान बहुल होने के साथ-साथ इस क्षेत्र में लिंगायतों का वर्चस्व है और सरकार गठन में इनकी अहमियत को देखते हुए भाजपा और कांग्रेस अपनी पकड़ मजबूत बनाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। वर्ष 2008 के चुनाव में इस क्षेत्र ने भाजपा के बीएस येड्डियूरप्पा का साथ दिया तो पिछले चुनावों में कांग्रेस के सिद्धरामय्या के साथ खड़ा हुआ। लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनावों में फिर एक बार इस क्षेत्र के मतदाताओं ने भाजपा को ही चुना। अब आगामी विधानसभा चुनावों में यहां के मतदाताओं के रुख को लेकर नेताओं की नींद उड़ी हुई है।
दरअसल, राज्य का मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र पिछले चार-पांच वर्षों से लगातार सूखे के दौर से गुजर रहा है। एक तरफ फसलें सूखने और अनाज उत्पादन घटने से किसान परेशान हैं तो दूसरी तरफ सिंचाई सुविधा वाले क्षेत्रों में किसानों को फसल की सही कीमत नहीं मिली। विशेष रूप से गन्ना उत्पादक उत्पादक किसानों की समस्याओं पर ना तो केंद्र सरकार और ना ही राज्य सरकार ने ठीक से ध्यान दिया है। अब आगामी चुनावों में उन्हें किसानों का फैसला सुनना होगा। हमेशा की तरह इस बार भी राजनीतिक दलों ने कृषि और किसानों से जुड़े मुद्दे को जानबूझकर दरकिनार किया है। लेकिन, किसान बहुल मुंबई-कर्नाटक क्षेत्र जहां उद्योगों का विकास आशानुरूप नहीं हो पाया वहां किसानों के मुद्दों को झुठलाना आसान नहीं होगा।
कभी यह क्षेत्र कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था लेकिन वर्ष 1990 में हुब्बल्ली ईदगाह मैदान में राष्ट्रीय झंडा फहराने के प्रयासों के साथ इस क्षेत्र में सांप्रदायिकता का रंग घुला और भाजपा को पहली बार पांव रखने की जगह मिली। इसके बाद भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व वाले लोकशक्ति सेसमझौता कर लिंगायतों की सहानुभूति प्राप्त की जिनकी काफी तादाद इस क्षेत्र में है।
रामकृष्ण हेगड़े के निधन के बाद जनता परिवार के काफी नेता भाजपा में आ गए और उसको पांव पसारने का मौका मिल गया। जब वर्ष 2007 में जनता दल (ध) ने लिंगायत नेता येड्डियूरप्पा को सत्ता में आने से रोक दिया तब येड्डियूरप्पा ने सहानूभूति का कार्ड खेला और इसका परिणाम वर्ष 2008 के चुनाव में देखने को मिला जब क्षेत्र की 50 में से 36 सीटों पर भाजपा ने कब्जा जमाया और पहली बार दक्षिण में कमल खिला। इसके साथ ही जनता दल (ध) इस क्षेत्र में अप्रासांगिक हो गया। लेकिन, मुख्यमंत्री बनने के बाद येड्डियूरप्पा पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और जेल जाने से लेकर पार्टी से अलग होने की घटना के बाद भाजपा के हाथ से यह क्षेत्र निकल गया।
पिछले चुनावों में 50 में से 31 सीटें कांग्रेस जीत कर सत्ता में आई वहीं भाजपा के खाते में केवल 13 सीटें रह गईं। येड्डियूरप्पा के नेतृत्व वाली केजेपी को दो सीटें मिलीं जबकि भाजपा से ही अलग हुई श्रीरामुलू की पार्टी बीएसआर कांग्रेस को भी एक सीट हाथ लगीं। जद (ध) को एक और निर्दलीय दो सीटों पर विजयी रहे। अगले ही वर्ष येड्डियूरप्पा की घर वापसी के बाद हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने एक को छोड़कर क्षेत्र की बाकी सभी लोकसभा सीटें जीत ली। लिंगायत पूरी ताकत के साथ फिर एक बा भाजपा के साथ खड़े हुए।
वर्ष 2018 के विधानसभा चुनावों में स्थितियां थोड़ी बदली हुई हैं। जहां भाजपा फिर एक बार लिंगायतों से उसी समर्थन की अपेक्षा कर रही है जैसा पिछले लोकसभा चुनावों मिला था वहीं अलग अल्पसंख्यक धर्म का प्रस्ताव लाकर सिद्धरामय्या ने उसपर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं।
सिद्धरामय्या की यह चतुर चाल लिंगायतों में येड्डियूरप्पा के वर्चस्व को कितना तोड़ पाएगी यह तो वक्त ही बताएगा लेकिन संदेह जरूर पैदा हो गया है। हालांकि, कांग्रेस सिर्फ लिंगायत मतों के विभाजन पर भरोसा नहीं कर रही है और अपनी सरकार की उपलब्धियों को भी गिना रही है। वहीं सिद्धरामय्या के लिंगायत कार्ड के बावजूद भाजपा को भरोसा है कि लिंगायत समुदाय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की व्यापक स्वीकार्यता का लाभ उसे मिलेगा। िलंगायत मठ इस मुद्दे पर निर्णायक भूमिका निभाएंगे। वहीं महादयी आंदोलन का मुद्दा भी है लेकिन भाजपा इसके चुनावी असर को नकार रही है।
किसान आंदोलन का रहा है असर
जब भी चुनाव आता है वर्ष 1980 की घटना का जिक्र नेता राजनीतिक लाभ उठाने के लिए बड़ी चतुराई से करते रहे हैं। करीब चार दशक पहले हुई उस घटना ने राज्य में किसान आंदोलन को जन्म दिया और उसका राजनीतिक असर आज तक है। तब कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री आर.गुंडुराव ने मलप्रभा कमांड क्षेत्र में नविलुतीर्थ जलाशय के निर्माण के बाद किसानों पर प्रति एकड़ 1500 रुपए सुविधा कर लगाने का प्रस्ताव रखा था जिसके खिलाफ क्षेत्र के किसान आंदोलित हो उठे थे। ‘नरगुंद बंडायाÓ नाम से मशहूर उस किसान आंदोलन में नरगुंद से लेकर नवलगुंद तक के हर किसान परिवार का एक सदस्य शामिल हुआ। अंतत: आंदोलन हिंसात्मक हुआ और किसानों के साथ-साथ तीन पुलिसकर्मियों की भी जान गई। उस आंदोलने ने राज्य की राजनीति को पूरी तरह बदल दिया। कांग्रेस का किला हिल गया और नए राजीतिक समीकरणों को हवा मिली। जनता पार्टी के नेता रामकृष्ण हेगड़े ने इसका खूब फायदा उठाया और उनके नेतृत्व में वर्ष 198 3 में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। तब से अब तक इस क्षेत्र में राजनीतिक परिवर्तनशीलता का दौर रहा लेकिन किसानों से जुड़े मुद्दे गौण ही रहे।
अधूरे वादे : किसानों को नहीं नेताओं पर भरोसा
गदग, धारवाड़, बागलकोट और बेलगावी के 11 जिलों को पेयजल की आपूर्ति के लिए प्रस्तावित कलसा-बंडूरी परियोजना को लागू करने की मांग को लेकर किसानों ने 16 जुलाई 2015 को आंदोलन शुरु किया था जो अब भी अनवरत जारी है। इलाके के किसानों को इस मसले पर किसी भी दल या नेता पर ज्यादा भरोसा नहीं है। किसान समाधान चाहते हैं और उन्हें नेताओं के वादों से ज्यादा उम्मीदें अदालत से है। राज्य में सत्तारुढ़ कांग्रेस और केंद्र में सत्तासीन भाजपा इस मसले पर सिर्फ अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही है।
महादयी पंचाट ने महादयी नदी से जुड़े तीनों राज्यों- कर्नाटक, महाराष्ट्र और गोवा को आपसी बातचीत से सामधान तलाशने की सलाह दी थी लेकिन इस पर कोई ठोस पहल नहीं हुई। केंद्र सरकार ने मामले में दखल देने की इच्छा नहीं दिखाई तो तीनों राज्यों के मुख्मंत्रियों की एक बैठक की एक बार हुई कोशिश भी नाकाम रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा के बीच इस मसले पर राजनीतिक श्रेय लेने की होड़ के कारण राजनीतिक समाधान नहीं हो पा रहा। केंद्र और महाराष्ट्र व गोवा में भाजपा की सरकार जबकि कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है।
हालांकि, पिछले साल गुजरात चुनाव के बाद भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने मामले को सुलझाने की कोशिश की थी और येड्डियूरप्पा ने गोवा के साथ विवाद सुलझने का दावा भी किया लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। हालांकि, कांग्रेस और भाजपा के नेता एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप में उलझ गए। कांग्रेस समाधान नहीं होने के लिए भाजपा को दोषी बताती है तो भाजपा गोवा चुनाव में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के महादयी मसले पर दिए बयान को लेकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश करती है।
दोनों दलों के बड़े नेताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान इस मसले पर चुप्पी साध रखी है। हालांकि, स्थानीय प्रचार के दौरान अपनी-अपनी सुविधा के मुताबिक इस आंदोलन का जिक्र करते हैं लेकिन सिर्फ वादों तक। कांग्रेस अब तक इस मसले पर कानूनी लड़ाई का श्रेय लेने की कोशिश कर रही है तो भाजपा राज्य में सत्ता में आने पर मामले को सुलझाने का वादा कर रही है। जबकि जद (ध) का कहना है कि इस परियोजना की शुरुआत कुमारस्वामी सरकार के कार्यकाल में हुई थी इसलिए पार्टी फिर से सत्ता में आई तो वह इसे पूरा करेगी। नेताओं के वादों के बीच किसानों को इस बात की चिंता है कि कब इस समस्या का सामधान होगा।

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