मोह जनित संताप आत्मा को तपाता है-आचार्य महेन्द्रसागर
धर्मसभा का आयोजन
बेंगलूरु. अजीतनाथ जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ तुमकुरु में विराजित आचार्य महेंद्रसागर सूरी ने कहा कि मोह अग्नि के समान है। अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है। किंतु मोह जनित संताप आत्मा को तपाता हुआ चिरकाल पर्यंत भ्रमण कराता है। 8 कर्मों में मोहनीय कर्म की स्थिति ही सबसे लंबे समय तक रहती है। मोहनीय कर्म जब उदय में आता है तो कई सद्गुणों को भस्म कर देता है। इसके ताप से समग्र संसार पीडि़त है। अगर मानव को इस संसार चक्र से छूटना है तो संसार के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति का त्याग करना होगा। उसे सोचना होगा कि यह जीवन धर्म साधना के द्वारा मोह को तोडऩे के लिए है ना कि संसार में लिप्त रहकर संसार को बढ़ाने के लिए। संसार में आसक्त रहकर आत्मा का कल्याण होना कभी भी संभव नहीं है। अपने दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करना चाहते हो तो सर्वप्रथम मोह, ममता का त्याग करना चाहिए। मनुष्य के सबसे निकट शरीर है अत: उसके प्रति उसका होता है। उसके बाद उस परिवार और परिवार के अपनी भौतिक संपत्ति के प्रति आसक्ति बनी रहती है। इसमें से एक भी वस्तु उसकी आत्मा के लिए हितकर नहीं होती है जिनकी रक्षा करने में उसका जीवन समाप्त होता है।
धर्मसभा का आयोजन
बेंगलूरु. अजीतनाथ जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ तुमकुरु में विराजित आचार्य महेंद्रसागर सूरी ने कहा कि मोह अग्नि के समान है। अग्नि का संताप तो देह पर अल्पकालीन असर डालता है। किंतु मोह जनित संताप आत्मा को तपाता हुआ चिरकाल पर्यंत भ्रमण कराता है। 8 कर्मों में मोहनीय कर्म की स्थिति ही सबसे लंबे समय तक रहती है। मोहनीय कर्म जब उदय में आता है तो कई सद्गुणों को भस्म कर देता है। इसके ताप से समग्र संसार पीडि़त है। अगर मानव को इस संसार चक्र से छूटना है तो संसार के प्रति रही हुई अपनी आसक्ति का त्याग करना होगा। उसे सोचना होगा कि यह जीवन धर्म साधना के द्वारा मोह को तोडऩे के लिए है ना कि संसार में लिप्त रहकर संसार को बढ़ाने के लिए। संसार में आसक्त रहकर आत्मा का कल्याण होना कभी भी संभव नहीं है। अपने दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करना चाहते हो तो सर्वप्रथम मोह, ममता का त्याग करना चाहिए। मनुष्य के सबसे निकट शरीर है अत: उसके प्रति उसका होता है। उसके बाद उस परिवार और परिवार के अपनी भौतिक संपत्ति के प्रति आसक्ति बनी रहती है। इसमें से एक भी वस्तु उसकी आत्मा के लिए हितकर नहीं होती है जिनकी रक्षा करने में उसका जीवन समाप्त होता है।