सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस यू.यू. ललित और विनीत सरन की पीठ ने भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत अनिवार्य मंजूरी के बिना ट्रायल कोर्ट द्वारा इस मामले को संज्ञान में लेने के फैसले पर सवाल उठाते हुए अधिकारी की याचिका पर राज्य सरकार से जवाब मांगा। दरअसल, लोकायुक्त ने 21 जून 2012 को पाशा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की थी। सेवानिवृत होने के 9 दिन पहले पाशा के विभिन्न ठिकानों पर छापेमारी हुई और यह दावा किया गया कि उन्होंने आय के ज्ञात स्रोतों से 272 फीसदी अधिक संपत्ति जमा की है। छह साल के अंतराल पर लोकायुक्त पुलिस ने 29 मई 2018 को आरोप पत्र दायर किया जिसमें आय से अधिक संपत्ति काफी कम करके 13.4 फीसदी बताई गई। यह लगभग 19 लाख रुपए थी।
पाशा की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता देवदत्त कामत और निशांत पाटिल ने दलील दी कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून-2018 के 26 जुलाई 2018 को अस्तित्व में आने के बाद अभियोजन से पहले उसके लिए अनुमोदन अनिवार्य है। संशोधित कानून के प्रावधान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कोई भी अदालत अधिकारियों के पिछले अनुमोदन को छोडक़र अपराधों का संज्ञान नहीं लेगी। अधिवक्ताओं ने दलील दी कि बिना अनुमोदन के अधिकारी के अपराधों का संज्ञान लिए जाने के फैसले को हाइकोर्ट में चुनौती दी थी लेकिन हाइकोर्ट ने 30 जनवरी 2020 को गलत और कानूनी रूप से अमान्य फैसला सुनाते हुए उनके मुवक्किल की याचिका खारिज कर दी और ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।