समाज के हित में ही स्वयं का हित: देवेंद्रसागर
- पाश्र्व सुशीलधाम में प्रवचन

बेंगलूरु. पाश्र्व सुशीलधाम में प्रवचन में आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने कहा कि हम जिस भी समय में जी रहे हों, उसे लेकर किसी की कोई एक राय नहीं होती। यह संभव भी नहीं है। हर आदमी अपने-अपने ढंग से सोचता है और समय की व्याख्या करता है। लेकिन मुश्किल तब होती है जब कोई अपने निष्कर्ष को सर्वोच्च और सार्वकालिक साबित करने में लग जाता है।
वह अपने लिए ऐसा आभामंडल तैयार करवा लेता है ताकि समाज उसकी जय-जयकार करे। यही वह सनक है जो आग्रह को जन्म देती है और धीरे-धीरे वर्ग या संगठन का रूप ले लेती है। यहीं से शुरू होता है सामाजिक संकट। तब आदमी भूल जाता है कि अगर वह समाज के अहित का कारण बनता है तो एक दिन अपने भी अहित का निमित्त बन जाएगा।
आचार्य ने कहा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज से जुड़ा है जन्म से मरण तक। उसकी व्यक्तिमूलक सत्ता भी समाज के संदर्भ में है। समाज की अपनी सत्ता भी उसके ही संदर्भ में है। इसलिए समाज के साथ व्यक्ति का आदान-प्रदान मूलक संबंध अनिवार्य रूप से रहता ही है। हमें इस प्रकार जीना चाहिए जिससे किसी का शोषण न हो, पीडऩ न हो।
लोक और आत्मा के बीच विभाजक-रेखा खींचना संभव नहीं
महावीर कहते हैं, लोकपीड़ा वास्तव में आत्म-पीड़ा है और आत्म-पीड़ा लोक-पीड़ा ही है। लोक और आत्मा के बीच विभाजक-रेखा खींचना संभव नहीं है। वे यह भी कहते हैं कि आत्मतुल्य समझो समस्त प्राणियों को। जैसी भावना हम अपने प्रति रखते हैं, वैसी ही दूसरे के प्रति भी रखें तो हिंसा से बचा जा सकता है।
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