प्राकृत भाषा में श्रेष्ठ महाकाव्यों की रचना : नागराजय्या
बेंगलूरु. देश में नौवीं सदी में प्राकृत भाषा में शृंगार रस युक्त महाकाव्यों की रचनाएं की गई थीं। प्राकृत तथा संस्कृत भाषाओं में रचित काव्य से प्रेरित होकर कन्नड़ साहित्य में भी छंद-युक्त महाकाव्यों की रचना संभव हुई है। साहित्यकार डॉ. एच.पी. नागराजय्या ने यह बात कही। शनिवार को कर्नाटक संस्कृत विवि के परिसर में प्राकृत भाषा की व्याप्ति को लेकर आयोजित व्याख्यानमाला में उन्होंने कहा कि प्राकृत भाषा में ज्ञान का भंडार है। इसलिए इस भाषा के अध्ययन, शोध कार्यों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। राज्य में शीघ्र ही श्रवणबेलगोला क्षेत्र में प्राकृत विश्वविद्यालय की स्थापना की जा रही है।
इससे पहले प्राकृत भाषा में रचित महाकाव्य पर व्याख्यान देने के के लिए पहुंचे अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय के डॉ एंड्रयू ओलैट ने कहा कि नौवीं सदी के शुरुआत में ही प्राकृत भाषा में निर्वाणलीलावती-जिनेश्वरा, भुवनसुंदरी-विजयसिंहा, सुरसुंदरी-धनेश्वरा, तरंगावती-पालिता, कुवलायमाला-उट्टोदना जैसे बेमिसाल काव्यों की रचना की गई है। ऐसा साहित्य हमें देश की किसी अन्य भाषाओं में देखने को नहीं मिलता है। हमें इस साहित्य में तत्कालीन संस्कृति तथा परंपराओं का मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है।
सातवाहन राजाओं के कार्यकाल में प्राकृत भाषा को राजाश्रय मिलने से इस भाषा में सहित्य का विपुल सर्जन संभव हुआ था। आज इस भाषा की कई श्रेष्ठ साहित्य रचनाएं लुप्त हो गई हैं। जो साहित्य उपलब्ध है उसका संरक्षण हमारा दायित्व है। इस अवसर पर संस्कृत विवि की कुलपति प्रो. पद्मशेखर ने विचार रखे। कार्यक्रम में कन्नड़ की वरिष्ठ लेखिका कमला नागराजय्या उपस्थित थीं।