कुछ इस तरह बना कर्नाटक भाजपा का दक्षिण का द्वार
भाजपा के लिए ‘दक्षिण का द्वार’ कहा जाने वाला कर्नाटक आजादी के बाद वर्ष 1952 से 1989 तक कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग रहा।

प्रियदर्शन शर्मा
बेंगलूरु. भाजपा के लिए ‘दक्षिण का द्वार’ कहा जाने वाला कर्नाटक आजादी के बाद वर्ष 1952 से 1989 तक कांग्रेस का अभेद्य दुर्ग रहा। इस दौरान जितने भी लोकसभा चुनाव हुए अधिकांश सीटों पर कांग्रेस उम्मीदवारों की जीत होती थी। विशेषकर राज्य में कांग्रेस का किला तब तक अभेद्य रहा जब तक लिंगायतों का खुला समर्थन कांग्रेस को मिलता रहा।
इस दौरान वर्ष १९८३ में राज्य में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी, जो रामकृष्ण हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी के बैनर तले बनी गठबंधन सरकार थी। हेगड़ सरकार के गठन के बावजूद कर्नाटक मे कांग्रेस का दमदार प्रदर्शन लोकसभा चुनाव १९८९ में भी दिखा और कांग्रेस ने राज्य की २८ में से २७ सीटों पर जीत हासिल की, जबकि जनता पार्टी ने एक सीट पर जीत हासिल की थी। वर्ष १९८९ में कांग्रेस को मिली ऐतिहासिक सफलता के पीछे भी राज्य में लिंगायत समुदाय का कांग्रेस के पक्ष में मतदान करना माना गया।
हालांकि, कर्नाटक की राजनीति में सबसे बड़े बदलाव का साल भी वर्ष-१९८९ को ही माना गया जब लिंगायतों को पहली बार कांग्रेस से झटका लगा। 198 9 में लिंगायत समुदाय से आने वाले वीरेंद्र पाटिल राज्य के मुख्यमंत्री और कर्नाटक प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे। लिंगायतों के बीच पाटिल की लोकप्रियता के कारण ही कांग्रेस के लिए लिंगायत बेल्ट मुंबई-कर्नाटक और हैदराबाद-कर्नाटक में व्यापक जीत सुनिश्चित हुई।
इस बीच 1990 में वीरेंद्र पाटिल की तबीयत खराब हो गई थी। उसी समय चामराजनगर और दावणगेरे में भी सांप्रदायिक झड़पें हुई थीं। तब उस समय के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने स्थिति का जायजा लेने के लिए कर्नाटक का दौरा किया था। उन्होंने वीरेंद्र पाटिल से मुलाकात कर उनके स्वास्थ्य के बारे में जानकारी ली।
हालांकि पाटिल से मुलाकात के कुछ मिनट बाद ही जब राजीव गांधी दिल्ली लौटने के लिए एचएएल हवाई अड्डे पर पहुंचे तब एक चौंकाने वाली घोषणा करते हुए उन्होंने कहा कि एक दो दिनों में कर्नाटक को नया मुख्यमंत्री मिल जाएगा। राजीव गांधी के इस बयान ने न सिर्फ वीरेंद्र पाटिल को झटका दिया बल्कि दो दिनों के बाद जब राजीव गांधी ने एस. बंगारप्पा को राज्य का नया मुख्यमंत्री बनाए जाने की घोषणा की तब लिंगायत समुदाय भी इस निर्णय से सकते में आ गया।
इस घटनाक्रम के बाद लिंगायतों ने कांग्रेस का राज्य में हुए हर चुनाव में सबक सिखाया। यहां तक कि विधानसभा चुनाव २०१८ के दौरान लिंगायत को अलग धर्म का मुद्दा बनाने का निशाना भी चूक गया और कांग्रेस को अपेक्षित सफलता नहीं मिली।
लिंगायतों का साथ मिला तो भाजपा ने भरी ऊंची उड़ान
पाटिल को हटाकर बंगारप्पा को मुख्यमंत्री बनाने का सीधा असर लोकसभा चुनाव १९९१ में हुआ और पहली बार लिंगायत समुदाय ने कांग्रेस का हाथ छोडक़र भाजपा का कमल खिलाने में मदद की। भाजपा ने बीदर, तुमकूरु, बेंगलूरु दक्षिण और मेंगलूरु संसदीय क्षेत्रों में जीत हासिल की। इसी दौरान भाजपा से बीएस येड्डियूरप्पा तेजी से लिंगायत समुदाय के बीच लोकप्रिय हुए, जबकि दिवंगत सांसद अनंत कुमार का अटल-आडवाणी के साथ बेहतरीन साथ बना। विधानसभा चुनाव १९९४ भाजपा को ४० सीटों पर जीत मिली।
वहीं १९९६ के लोकसभा चुनाव में भाजपा को सात सीटों पर जीत मिली। १९९१ से १९९६ की अवधि के दौरान अयोध्या मामला जोर पकड़ा और कर्नाटक में भाजपा भी हिंदुओं के बीच तेजी से लोकप्रिय हुई। लिंगायत, ब्राह्मण सहित अन्य बहुसंख्यक जातियों के बीच पार्टी की बढ़ती स्वीकार्यता का सीधा परिणाम १९९८ के लोकसभा चुनाव में दिखा और भाजपा ने पहली बार कर्नाटक में दो अंकों में यानी १३ संसदीय क्षेत्रों में जीत हासिल की। इसमें गुलबर्गा, कनकपुरा, मैसूरु-कोडुगू, उडुपी-चिकमगलूर, शिवमोग्गा और बेलगावी जैसे कांग्रेस की परंपरागत सीट भी शामिल थी।
लोकसभा चुनाव १९९९ में भी भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक रहा, जबकि २००४ के चुनाव में जब भाजपा के इंडिया शाइनिंग की हवा पूरे देश में निकल गई, उस समय पार्टी को कर्नाटक में २८ में से १८ सीटों पर जीत मिली, जबकि २००९ में भाजपा ने १९ सीटों पर जीत हासिल की। मोदी लहर में २०१४ के चुनाव में भाजपा १७ सीटों पर सफल रही।
उत्तर और मध्य कर्नाटक में बढ़ता गया दबदबा
राज्य की २८ लोकसभा सीटों में करीब १५ उत्तर और मध्य कर्नाटक में हैं, जबकि बेंगलूरु में तीन सीटें हैं। उत्तर और मध्य कर्नाटक में लिंगायतों का दबादबा रहा है और लिंगायतों ने जब तक कांग्रेस को साथ दिया तब तक कांग्रेस सर्वाधिक सीटें जीतती रही और जब लिंगायतों का साथ भाजपा को मिला तब से भाजपा सबसे ज्यादा सीटें जीतने वाली पार्टी बनी हुई है।
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