मन को ही मनका बनाकर फिराना शुरू करें-डॉ. कुमुदलता
धर्मसभा

बेंगलूरु. साध्वी डॉ. कुमुदलता ने कहा कि हाथ जोडऩा, मस्तक नमाना, पंचांग प्रणिपात में पांचों ही अंगों को नमाना अथवा साष्टांग दंडवत में संपूर्ण देह को भूमि पर सुला देना आदि शरीर के अंगों को नमाने की क्रिया को हम शारीरिक नमस्कार कहेंगे। उन्होंने कहा कि क्या मन से नमस्कार नहीं होता, ऐसी बात नहीं है। हमारा नमस्कार मात्र कायिक ही रह जाता है, मानसिक नहीं होता, इसीलिए तो मन पर हमें विजय नहीं मिलती और हम मात खा जाते हैं।
साध्वी डॉ. कुमुदलता ने कहा कि माला हाथ में फेरते-फेरते तो युगों के योग व्यतीत हो चुके हैं। फिर भी अभी तक मन को फेर नहीं हुआ। मन में तनिक भी अंतर नहीं पड़ा। अत: अब हाथ में रही हुई मनकों की माला को छोड़ दें और उसके स्थान पर इस मन को ही मनका बनाकर हाथ में रखकर अर्थात स्ववश कर फिराना शुरू करें। यहां कवि मनका शब्द का प्रयोग कर मन को ही मनका बनाकर धागे में पिरोकर फेरने का निर्देश देते हैं। माला क्या है? 108 मनकों को धागे में पिरोया कि वह माला बन गई। इससे माला फेरते हैं, परंतु इससे तो कई वर्ष युग बीतने पर भी मन में कुछ भी परिवर्तन नहीं आता। पकडऩा तो मन को था। मन को ही मनका बनाकर इसे ही हाथ में अर्थात नियंत्रण में रखकर माला फेरनी थी, परंतु साधक की भूल हो गई है जिसके कारण मन को स्वच्छंद छोड़ दिया और माला का मनका हाथ में आ गया तो साधक उसे ही फेरने में मग्न हो गया है। इसमें तो कई वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी साधना साध्य की ओर आगे नहीं बढ़ पाएगी। अत: मन की ही साधना करनी है, अर्थात मन को साधने की ही साधना करनी है।
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