बैंगलोर

इन्हें चाहिए मृत शरीर, नहीं मिलने से परेशान

‘शवों’ की कमी से जूझ रहे हैं राज्य मेडिकल कॉलेज

बैंगलोरAug 30, 2018 / 12:24 am

Rajendra Vyas

इन्हें चाहिए मृत शरीर, नहीं मिलने से परेशान

हर साल पड़ती है 855 शवों की जरूरत
सिमुलेटर और डिजिटल शरीर का इस्तेमाल करने पर मजबूर
बेंगलूरु. प्रदेश के सरकारी से लेकर निजी मेडिकल कॉलेज तक एक खास समस्या से जूझ रहे हैं। प्रशिक्षण के लिए शव (कडैवर) की कमी है।
भारतीय चिकित्सा परिषद (एमसीआइ) के अनुसार 10 विद्यार्थियों के लिए एक शव अनिवार्य है। मेडिकल विद्यार्थियों को देह विज्ञान (एनाटॉमी) की पढ़ाई में शवों की जरूरत पड़ती है। शव अनुसंधान के काम भी आता है, लेकिन शवों की कमी के चलते विद्यार्थी व प्रशिक्षकों को परेशानी हो रही है। ऐसे में कई कॉलेज थ्री-डी (त्रिआयामी) चलचित्र का इस्तेमाल करने पर मजबूर हैं। सिमुलेटर और डिजिटल शरीर का इस्तमाल भी होता है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं। इसके बावजूद असल अंगों को छूए और समझे बिना एनाटॉमी समझना मुश्किल है।
शिक्षण संस्थान बढऩे के साथ मांग भी बढ़ी
मेडिकल कॉलेजों व एमबीबीएस सीटों की बढ़ती संख्या के साथ शवों की मांग भी बढ़ी है। मेडिकल कॉलेजों की संख्या को देखते हुए प्रदेश में हर वर्ष सैकड़ों शवों की जरूरत पड़ती है। प्रदेश के 57 मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की 8695 सीटें हैं। हर कॉलेज में औसतन एमबीबीएस की 150 सीटें हैं। एमसीआइ के 10 विद्यार्थियों पर एक शव के नियम को मानें तो 57 कॉलेजों को हर वर्ष कुल 855 शवों की जरूरत पड़ती है।
एक शव से सीखते हैं 30 विद्यार्थी
हाल ही में एमबीबीएस की पढ़ाई कर चिकित्सक बने डॉ. श्रीधर ने बताया कि मेडिकल कॉलेजों में शल्य चिकित्सा सीखने के लिए शवों की हमेशा कमी रही है। कई ऐसे कॉलेज भी हैं जिन्हें साल भर प्रयास करने के बाद बमुश्किल एक शव मिल पाता है। एक शव से 25-30 विद्यार्थी सीखते हैं। इससे काफी परेशानी होती है।
देहदान करने से पीछे हट जाते हैं परिजन
डॉ. बी.आर. अम्बेडकर मेडिकल कॉलेज के एक वरिष्ठ चिकित्सक ने बताया, शव की भयंकर कमी है। साल में तीन से भी कम लोग देहदान के लिए पंजीकरण कराते हैं। ज्यादातर मामलों में मौत के बाद परिवार देहदान करने से मना कर देते हैं। अंगदान को लेकर लोग जागरूक हुए हैं, लेकिन देहदान के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। ऐसे में उपलब्ध शव को ज्यादा से ज्यादा समय तक सुरक्षित रख विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है।
अब लावारिस शव मिलना मुश्किल
बेंगलूरु मेडिकल कॉलेज एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक पूर्व डीन के अनुसार मुश्किल से देहदानियों के शव मिलते हैं। शव को कम-से-कम दो वर्ष तक सुरक्षित रखा जाता है। विद्यार्थी सर्जरी की बारीकियां समझते और सीखते हैं। लावारिस शव को एनाटॉमी की शिक्षा के काम में लिया जाता था। शव मिलने के 48 घंटे तक कोई शव पर दावा नहीं करता था तो पुलिस शव को शिक्षण कार्यों के लिए मेडिकल कॉलेजों को दे दिया जाता था, लेकिन अब नियम बदल गए हैं।
कडैवर बैंक से बन सकती है बात
एक निजी मेडिकल कॉलेज के एनाटॉमी विभाग के प्रोफेसर ने बताया, सरकारी कॉलेजों के लिए शव की व्यवस्था कर पाना आसान है। पुलिस मदद करती है, लेकिन निजी कॉलेजों को खुद व्यवस्था करनी पड़ती है। इसके लिए कई कॉलेज जागरूकता कार्यक्रम चलाते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं के सदस्य तथा स्वेच्छा से देहदान करने की चाह रखने वाले लोग इस नेक काम से विमुख हो रहे हैं। लोगों को यह भी लगता है कि देहदान के बाद उनके शव का अपमान होगा। प्रदेश सरकार को चाहिए कि कडैवर बैंक स्थापित करे और जरूरत के अनुसार कॉलेजों को शव प्रदान करवाए जाएं।
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