scriptस्थूलभद्र सूरीश्वर दक्षिण के धर्मप्रभावक गुरु बने-आचार्य चन्द्रयश | Sthulabhadra Surishwar became the religious teacher of the South - Ach | Patrika News

स्थूलभद्र सूरीश्वर दक्षिण के धर्मप्रभावक गुरु बने-आचार्य चन्द्रयश

locationबैंगलोरPublished: Jun 22, 2021 10:04:45 am

Submitted by:

Yogesh Sharma

18 वीं पुण्यतिथि आज

स्थूलभद्र सूरीश्वर दक्षिण के धर्मप्रभावक गुरु बने-आचार्य चन्द्रयश

स्थूलभद्र सूरीश्वर दक्षिण के धर्मप्रभावक गुरु बने-आचार्य चन्द्रयश

बेंगलूरु. आचार्य स्थूलभद्र सूरीश्वर एक ऐसी सरलता की मूर्ति थे जिनके ध्यान मात्र से हृदय मंदिर में श्रद्धा के सहस्रों दीप प्रज्ज्वलित होते हैं। बाल-युवा, अमीर-गरीब सभी को वात्सल्य एवं ममता का स्रोत गुरुदेव के सान्निध्य में मिलता है। गुरुदेव दिव्य शक्तियों के पुंज थे। वाणी में मधुरता, प्रवचन में विद्वता एवं जीवन में निर्मलता दृष्टिगोचर होती है। दर्शन ज्ञानचारित्र की आराधना में विशुद्धतामय जीवन सहज ही एक योगी पुरुष की भांति आनंददायी है। आचार्य का जन्म पूर्णिमा के दिन गुजरात के राधनपुर में हुआ था। पिता कांतिलाल एवं माता ताराप्रभा बेन के धार्मिक सुसंस्कारों से उनका बाल्यावस्था से युवावस्था तक का समय व्यसन मुक्त एवं धार्मिकता से ओत-प्रोत रहा। गुरुदेव लब्धि सूरीश्वर के सान्निध्य एवं तीर्थ प्रभाकर गुरुदेव विक्रम सूरीश्वर के प्रतिबोध से संसार से विरक्त होकर उनकी संयम दीक्षा राधनपुर में हुई।
आचार्य चन्द्रयश सूरी ने कहा कि संयम के प्रारंभ से ही उनमें विनय के माधुर्य के साथ शास्त्राध्ययन की अपूर्व लगन, संस्कृत, वगयाकरण न्यायादि आगमिक ग्रंथों का अध्ययन करके जीवन को ज्ञान माधुर्य से वैराग्यमय बनाया। ज्ञानाराधना के साथ वर्धमान तप की 80 ओली की आराधना से गुरुदेव तपोमय थे। आचार्य लब्धि सूरीश्वर के लाक्षणिक गुणों को देखकर कहते थे कि मेरा स्थूलभद्र दर्शन-ज्ञान-चरित्र का त्रिवेणी संगम का आदर्श साधु है।
उनकी सहज सरलता, आत्म विलोपन की शक्ति एवं शासन प्रभाकर कार्यों की शक्ति से गुरु की कृपा से, पौष वदी एकम संवत् 2043 को आचार्य पद पर आसीन हुए। आचार्य पद पर आरूढ़ होते ही गुरु कृपा से शासन प्रभावना के साथ विशिष्ट पुण्य प्रताप के तेजस्वी रूप से अनेक जिन मंदिरों की प्रतिष्ठा, प्राचीन तीर्थोद्वार एवं नूतन तीर्थों की स्थापना जैसे अनेक कार्य कराए। गुजरात, महाराष्ट्र आदि अनेक क्षेत्रों में चातुर्मास एवं शासन प्रभावना करते हुए, ऐतिहासिक चित्रदुर्ग की गोडी पाश्र्वनाथ प्रभु की प्रतिष्ठा कराने संघ की त्रिवर्षीय विनती स्वीकार करके आचार्य 2048 में कर्नाटक पधारे। आचार्य के पदार्पण से दक्षिण भारत का उदयकाल आया। आचार्य का प्रथम चातुर्मास बेंगलूरु के चिकपेट में हुआ। अकल्पित उत्साह, परम भक्ति का माहौल, 131 मासक्षमण की बेंगलूरु में प्रथम बार तपश्चर्या, युवा जागृति सह प्रभावक चातुर्मास में उनकी तीर्थ बनाने की भव्य भावना से लाखों जैनों की जनसंख्या होने पर भी कर्नाटक प्रांत में एक भी जैन श्वेताम्बरीय का तीर्थधाम नहीं था। लब्धि गुरु के लब्धिधारी, विक्रम गुरु के विक्रमकारी, दक्षिण केसरी, सरलमना, आचार्य स्थूलभद्र सूरीश्वर के मंगलमय पदार्पण से बेंगलूरु नगर में जिन मंदिरों का निर्माण तो हुआ। साथ ही उनकी प्रेरणा से भारत का विशाल भव्य प्रथम मंदिर नाकोड़ा अवन्ति 108 पाश्र्वनाथ जैन तीर्थधाम विक्रम स्थूलभद्र विहार का निर्माण हुआ। साधर्मिक उद्धार के लिए साधर्मिक सेवा केन्द्र जिस पंचम काल में बार-होटलों में युवा पीढ़ी भटक रही थी। वहां आचार्य ने संस्करारों के सोपन मंदिरों का निर्माण, बाल संस्कृति के संस्कारों के लिए पाठशालाओं के निर्माण से अनेक धर्म संस्कार धाम बनाने की प्रेरणा देकर धर्म संस्कृति खड़ी की है। देवनहल्ली तीर्थ कलाकृतियों से बेमिसाल, नयनभिराम प्रतिमाओं से आकर्षित लाखों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बना है।
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