प्रकृति को सबसे बड़ा खतरा इंसानी सोच से- देवेंद्रसागर
बैंगलोरPublished: Aug 04, 2020 05:44:10 pm
धर्म प्रवचन
प्रकृति को सबसे बड़ा खतरा इंसानी सोच से- देवेंद्रसागर
बेंगलूरु. शंखेश्वर पाश्र्वनाथ जैन संघ राजाजीनगर के तत्वावधान में आयोजित धर्म प्रवचन में आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने कहा कि ऐसी कोई सदी नहीं होगी जब प्रलय और विनाश की भविष्यवाणी न की गई हो। इसमें भविष्य वक्ता यह दावा करते रहते हैं कि अब बस प्रलय आने ही वाली है। लेकिन इसके साथ ही वे इस बात की गारंटी भी देते हैं कि जो उनकी शरण में होगा, बस वही इस धरती पर बचा रह पाएगा। मतलब वे अपने जिंदा रहने की घोषणा कर रहे होते हैं। यह भविष्यवाणी इस अंदाज में की जाती है, मानो सृष्टि का संचालन वही कर रहे हैं। वे खुद या तो ईश्वर हैं या ईश्वर से उनका सीधे तार जुड़ा हुआ है। आचार्य ने कहा कि अगर प्रलय आ गई तो कौन सा धर्म-संप्रदाय बचेगा? जब आदमी ही नहीं बचेगा, तो बाकी क्या रह जाएगा? हैरानी की बात यह है कि इस वैज्ञानिक युग में भी लोग ऐसी बातों पर भरोसा कर लेते हैं। वे इतिहास को टटोलना भूल जाते हैं कि कितनी बार किस-किस ने कब ऐसी भविष्यवाणी की और उसका हश्र क्या हुआ? हम विश्वास करें कि करीब-करीब सभी भविष्यवाणियों का समय बीत चुका है। यदि किसी का समय नहीं बीता है तो वह भी बीत जाएगा। सृष्टि में कोई भी अंतर नहीं पडऩे वाला है। इसकी निरंतरता में कोई बाधा नहीं आने वाली है। हां, आंशिक प्रलय हो सकती है। वह सदा होती आई है, आगे भी होती रहेगी। यह सृष्टि का अपना चक्र है। महाप्रलय जैसी आशंका मात्र कपोल कल्पना होती है। लेकिन हां, मानव-जाति के निरंतर विनाश की आशंका से हम इंकार नहीं कर सकते। प्रलय और विनाश में एक स्पष्ट अंतर है। प्रलय का सीधा संबंध प्राकृतिक आपदाओं से होता है, जिसे हम प्रकृति की लीला भी कहते हैं। जैसे अभी ठहर-ठहर कर भूकंप आ रहा है। इसके पहले भारत सहित कई देशों में यह भयानक तबाही मचा चुका है। इसी प्रकार समुद्री तूफानों ने तटवर्ती बस्तियों का नुकसान किया है। इसके अलावा बाढ़, महामारी जैसी प्राकृतिक आपदाओं का भी आगमन होता रहता है। इसमें धरती या आकाश के अपने कुछ निश्चित नियम काम करते हैं। यह समझें कि प्रकृति जो तोडफ़ोड़ करती है, वह सृष्टि का ही एक हिस्सा है। दरअसल प्रलय का संबंध प्रकृति से है जबकि विनाश का संबंध मनुष्य के अपने कर्मों से है। मनुष्य अपनी निरंकुश हरकतों से विनाश को आमंत्रण दे रहा है। विश्व के सभी राष्ट्र शक्ति-संतुलन के नाम पर विनाशकारी शस्त्रों की अंधी दौड़ में शामिल हैं। यह सब राष्ट्रवाद की आड़ में हो रहा है। वहीं, संप्रदायवाद और मजहबी उन्माद से उठने वाली लपटें आदमी को निगल जाने के लिए तैयार हैं। इसके समानांतर कुछ लोग विकास के नाम पर पशु-जगत, वनस्पति-जगत, नदी-नाले, पर्वत, जंगल आदि प्राकृतिक संपदा को लूटने में लगे हैं। यांत्रिक सभ्यता भी जीवन-धारण के लिए आवश्यक प्राणदायी पर्यावरण पर सीधा प्रहार कर रही है। इसके लिए कोई और नहीं, मनुष्य स्वयं जिम्मेदार है। यह गैर-जिम्मेदारी प्राकृतिक प्रलय से अधिक विनाशकारी रूप धारण कर रही है। आज जितना खतरा अंधविश्वास से है, उतना ही आदमी की निरंकुश सोच से भी है। इसलिए जरूरत है कि हम मनुष्यता के ढर्रे पर चलकर खुद को, समाज को और मानव-जाति को बचाने की चिंता करें।