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गलत सोच का चश्मा जितनी जल्दी हो, उतार देना चाहिए

locationबैंगलोरPublished: Sep 18, 2020 10:16:44 am

Submitted by:

Yogesh Sharma

राजाजीनगर में धर्मसभा

गलत सोच का चश्मा जितनी जल्दी हो, उतार देना चाहिए

गलत सोच का चश्मा जितनी जल्दी हो, उतार देना चाहिए

बेंगलूरु. राजाजीनगर में आयोजित धर्मसभा को सम्बोधित करते हुए आचार्य देवेंद्रसागर सूरी ने कहा कि गलत सोच का चश्मा जितनी जल्दी हो, उतार देना चाहिए। बुरे विचार जितना दूसरों का नुकसान करते हैं, उतना ही हमारा अपना भी। कारण अपनी ही सुरक्षा को लेकर डरा दिमाग ढंग से नहीं सोच पाता। हम स्वार्थी हो उठते हैं, केवल अपने बारे में ही सोचते हैं। ‘आपके विचार वहां तक ले जाते हैं, जहां आप जाना चाहते हैं। पर कमजोर विचारों में दूर तक ले जाने की ताकत नहीं होती। गलत सोच एवं पैसे का लोभ तो पहले भी था, स्वार्थ की वृत्ति आदमी में पहले भी थी, नाम, यश, प्रतिष्ठा और बड़प्पन की भावना पहले भी थी, महत्वाकांक्षा का होना कोई नई बात नहीं। गलत सोच को बढ़ावा देने वाले ये सारे कारक तत्व आदमी में युगों पहले भी थे, आज भी हैं। इतना जरूर है कि नकारात्मक सोच का ग्राफ इतना ऊंचा पहले कभी नहीं था, जितना वर्तमान समय में आज है। जो है, उसे छोडक़र, जो नहीं है उस ओर भागना हमारा स्वभाव है। फिर चाहे कोई चीज हो या रिश्ते। यूं आगे बढऩा अच्छी बात है, पर कई बार सब मिल जाने के बावजूद वही कोना खाली रह जाता है, जो हमारा अपना होता है। दुनियाभर से जुड़ते हैं, पर अपने ही छूट से जाते हैं। आचार्य ने कहा कि गलत सोच एवं अनैतिक कार्यों में लिप्त लोगों को धनवान और प्रतिष्ठित होते देख आदमी में नकारात्मक चिंतन जागता है। अपनी ईमानदारी उसे मूर्खतापूर्ण लगती है। वह पुनर्चिंतन करता है-क्या मिला मुझे थोथे आदर्शों पर चलकर? मुझसे जूनियर लोग कहां से कहां पहुंच गए और मैं ईमानदारी से चिपका रहकर जहां का तहां रह गया। जब सभी अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं तो एक मैं ही हरिशचंद्र क्यों बनूं? यह नकारात्मक चिंतन उसे भी भ्रष्टाचार के दलदल में उतार देता है। समाज में भ्रष्ट और बेईमान लोगों की उत्पत्ति इसी तरह के गलत विचारों के संक्रमण से हुई। इस तरह की गलत सोच हमारी दुनिया को छोटा कर देती है। भीतर और बाहरी दोनों ही दुनिया सिमट जाती हैं। तब हमारा छोटा-सा विरोध गुस्सा दिलाने लगता है। छोटी-सी सफलता अहंकार बढ़ाने लगती है। थोड़ा-सा दुख अवसाद का कारण बन जाता है। कुल मिलाकर सोच ही गड़बड़ा जाती है।अंत ने आचार्य ने कहा कि अपने ही बोले हुए को सुनते रहना ज्यादा सीखने नहीं देता।’ इस तरह के लोग हैं, जो तात्कालिक सोच से जुड़े होते हैं। उनका चिंतन होता है कि सुयोग से बड़ा पद मिला है, लेकिन यह कब तक बरकरार रहेगा, कुछ पता नहीं, इसलिए यही सबसे उपयुक्त मौका है, फायदा उठा लेने का। स्वार्थ पूरी तरह से उन पर हावी है। लोभ की पट्टी उनकी आंखों पर बंध चुकी है। यश-अपयश की उन्हें चिंता नहीं। पैसे और प्रभाव के बल पर वे सब कुछ ठीक कर लेंगे, इसका उन्हें पूरा भरोसा है।
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