दुनिया की सबसे बड़ी अदालत हमारे भीतर : आचार्य देवेंद्रसागर
राजाजीनगर में प्रवचन

बेंगलूरु. राजाजीनगर के सलोत जैन आराधना भवन में आचार्य देवेंद्रसागर ने प्रवचन में कहा कि आज का व्यक्ति स्वयं से इतना भयभीत रहता है कि उसमें खुद से रूबरू होने की हिम्मत नहीं होती। आत्ममंथन और पुनर्विचार से उसे सिहरन होती है। बाहरी छवि और प्रतिष्ठा के निखार और निजी प्रभाव के विस्तार की पुरजोर कोशिश में वह अपना स्वभाव बहिर्मुखी बना लेता है। लेकिन खुद से रूबरू होने का यह मतलब नहीं कि दुनिया से बेखबर रहें, और अपने दायित्वों से मुंह फेर लें।
आचार्य ने कहा कि बाहरी दुनिया से निरंतर जुड़ाव सोच को निखारने और परिष्कृत करते रहने के लिए जरूरी है, फिर भी बाहरी और अंदरूनी पहचान के बीच सामंजस्य उसी तरह जरूरी है जैसे केंद्र और परिधि, या शरीर और आत्मा के बीच।
बहिर्मुखी हों या अंतर्मुखी, दोनों अपनी सामथ्र्य निरंतर बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। फिर भी समर्थ होने के बाद दोनों का व्यवहार एक दूसरे से बिलकुल अलग रहता है। आत्मनिरीक्षण करते रहने वाला व्यक्ति समर्थ होने के बाद फलदार वृक्ष की तरह विनम्र होगा। उसे यकीन रहता है कि ‘लाइक्स’ की संख्या, पदवियां, सम्मान और दीवार पर लिखी इबारत से कोई महान नहीं बनता, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी अदालत तो हमारे भीतर है। प्रभु हमारे भीतर ही हैं। संशयों, बाधाओं से पार पाने के लिए हमें अपनी आत्मा के अंदर झांकना पड़ेगा।
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