आचार्य ने कहा कि बाहरी दुनिया से निरंतर जुड़ाव सोच को निखारने और परिष्कृत करते रहने के लिए जरूरी है, फिर भी बाहरी और अंदरूनी पहचान के बीच सामंजस्य उसी तरह जरूरी है जैसे केंद्र और परिधि, या शरीर और आत्मा के बीच।
बहिर्मुखी हों या अंतर्मुखी, दोनों अपनी सामथ्र्य निरंतर बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। फिर भी समर्थ होने के बाद दोनों का व्यवहार एक दूसरे से बिलकुल अलग रहता है। आत्मनिरीक्षण करते रहने वाला व्यक्ति समर्थ होने के बाद फलदार वृक्ष की तरह विनम्र होगा। उसे यकीन रहता है कि ‘लाइक्स’ की संख्या, पदवियां, सम्मान और दीवार पर लिखी इबारत से कोई महान नहीं बनता, क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी अदालत तो हमारे भीतर है। प्रभु हमारे भीतर ही हैं। संशयों, बाधाओं से पार पाने के लिए हमें अपनी आत्मा के अंदर झांकना पड़ेगा।