इस अवसर पर आचार्य महेंद्रसागर सूरी ने प्रासंगिक प्रवचन में कहा कि दीक्षा लेना कोई साधारण साधना नहीं है। साधु जीवन में रंग राग मौज मस्ती करना नहीं होता है। बल्कि ऐसे आकर्षणों के त्याग का नाम ही दीक्षा है। जैन साधु अर्थात सुखों की सृष्टि का त्याग और दुखों से भरपूर सृष्टि को निमंत्रण। साधु के हाथ में रहा ओघा तो विश्वास का तीर्थ है। साधु वेश मिलते ही पुण्य जागृत हो जाता है। इस वेश के प्रताप से सुख सामग्री में लगती है। लोग भक्ति भाव से उन्हें अनुकूलताएं देने आते हैं। परंतु साधु उन अनुकूलताओं को मजे से भोगते नहीं हैं। सांसारिक सुख जिसे फेंकने जैसा लगे वही साधु होकर साधु जीवन को और रजो हरण को शोभित करता है। इस अवसर पर मुनि राज पद्मासागर ने मुमुक्षु दर्शनकुमार के वरघोड़ा और २१ अप्रेल को श्रीनगर संघ में होने वाली दीक्षा के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि दीक्षा पवित्र दिन होता है। इसमें अधिकाधिक लोगों को आना चाहिए। इस अवसर पर मुनि मेरुपद्मसागर एवं मुनि अर्हमपद्मसागर भी उपस्थित थे।