बरकतुल्लाह के निधन के बाद 1973 में हरिदेव जोशी को कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि मुख्यमंत्री का चयन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को करना था। बताते हैं कि इंदिरा गांधी की पहली पसंद रामनिवास मिर्धा थे। वहीं कई विधायक हरिदेव जोशी के पक्ष में थे। ऐसे में विधायक दल की वोटिंग हुई, जिसमें जोशी ने मिर्धा से 13 वोट अधिक हासिल किए और पहली बार जनजाति इलाके का व्यक्ति मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा। इसके साथ ही प्रदेश की राजनीति में बांसवाड़ा की पहचान स्थापित होती गई। जोशी ने संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम को भी लागू करने में रुचि दिखाई। कई विपक्षी विधायकों को कांगे्रस में शामिल किया।
जनता लहर के बाद 1980 के चुनाव में कांगे्रस दोबारा सत्ता में लौटी। पहले जगन्नाथ पहाडिय़ा, फिर शिवचरण माथुर सीएम बने। माथुर को एक एनकांउटर के बाद इस्तीफा देना पड़ा तो हीरालाल देवपुरा को कार्यवाहक सीएम बनाया। इसके बाद चुनाव हुए तो हरिदेव जोशी को राजीव गांधी ने मुख्यमंत्री बना दिया। इसे लेकर कांगे्रस के आला नेताओं ने नाराजगी भी जताई। 1986 में राजीव गांधी की रणथंभौर यात्रा के दौरान हरिदेव जोशी एक नेता के कहने पर नहीं पहुंचे तो गांधी नाराज हो गए। जानकारी पर जोशी दिल्ली पहुंचे और पूरी कहानी बताई तब गांधी की नाराजगी दूर हुई। इसके बाद गांधी की सरिस्का यात्रा के दौरान कोई बड़ा तामझाम नहीं करना था, लेकिन तामझाम को देखकर वे नाराज हुए। बाद में उनके कहने पर जोशी ने जनवरी 1988 में पद से त्यागपत्र दे दिया।
जोशी का प्रदेश की राजनीति में इतना अधिक रूतबा था कि 1989 के लोकसभा चुनाव में कांगे्रस को नुकसान उठाना पड़ा और चार महीने बाद विधानसभा चुनाव था। माथुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद जोशी को असम का राज्यपाल बनाया था, लेकिन विधानसभा चुनाव को देखते हुए जोशी को गुवाहाटी से जयपुर बुलाया गया। वे विधायक दल के नेता चुने गए और चार दिसंबर 1989 को तीसरी बार सीएम की शपथ ली। 93 के चुनाव के बाद भी उन्हें विधायक दल का नेता चुना गया था। हालांकि सरकार भाजपा की बनी और बाद में 28 मार्च 1995 को जोशी का निधन हो गया। आज जोशी नहीं हैं, लेकिन जिले और प्रदेश की राजनीति में उनके रूतबे और दखल की चर्चाएं अब भी होती हैं।