script

बांसवाड़ा : मकर संक्रांति : ‘बरेली’ ने काटा ‘लाल-काला मुर्गा’

locationबांसवाड़ाPublished: Jan 13, 2018 11:53:25 am

Submitted by:

Ashish vajpayee

अब युवा नहीं बनाते परम्परागत तरीके से मांझा, पतला बरेली धागा बना पहली पसंद

banswara news
बांसवाड़ा. नया दौर, नई तकनीक और संसाधनों की सहज उपलब्धता से क्रेजी होते युवा पतंगबाजी के पुराने अंदाज से भी दूर होते गए हैं। हालात ऐसे बदले हैं कि आज की युवा पीढ़ी तो यह सुनकर हैरत में पड़ जाती है कि पहले युवा खुद हाथों से मांझा तैयार करते थे। परंपरा की डोर काटी है बरेली धागे ने। दो-तीन दशक पहले बाजार में आए बरेली धागे की भरपूर उपलब्धता के साथ युवा पीढ़ी की मानसिकता में बदलाव में हाथ से मांझा तैयार करने का शौक खो गया।
एक समय था कि मकर संक्रांति के आने के पहले ही युवाओं के समूह मांझा बनाने में जुट जाते थे। बांसवाड़ा में दो दशक पहले तक बाजार में स्वयं के हाथों मांझा बनाने की सामग्री सहज मिल जाती थी। वहीं ‘काला मुर्गा’, ‘लाल मुर्गा’ और ‘जंजीर’ ब्रांड का धागा युवाओं की पहली पसंद था, लेकिन बरेली धागा आने के बाद धीरे-धीरे इसका उपयोग कम होने लगा और वर्तमान में एक ओर यह ब्रांड बाजार में ढूंढे नहीं मिल रहे हैं तो दूसरी ओर स्वयं मांझा बनाने वाले युवा भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं।
…और कम हुआ क्रेज

90 के दशक में जब बाजार में बरेली का धागा मिलने लगा तो इसकी तेज धार ने पतंगबाजों को अपनी ओर आकर्षित किया। इसके चलते हाथ से मांझा बनाने में उनकी रुचि कम होने लगी। साथ ही इसके निर्माण की सामग्री भी धीरे-धीरे बाजार से मानो गायब सी हो गई। शुक्रवार को बाजार में ‘काला मुर्गा’, ‘लाल मुर्गा’ और ‘जंजीर’ ब्रांड का धागा तलाशा, लेकिन किसी भी पतंग विक्रेता के पास यह नहीं मिल पाया। दुकानदार भी यह कहते नजर आए कि वो जमाना गया। अब वो धागा बाजार में मिलना मुश्किल है। एक दुकान पर ‘गन’ सादा धागा जरूर मिला। दुकानदार ने कहा कि यह छोटे बच्चों के लिए रखा है। उनके अभिभावक भी इसे वहीं दिलाते हैं।
दोस्तों का सहयोग, खर्च भी कम

पतंगबाजी के लिए स्वयं मांझा बनाने के दौर में तीन-चार दोस्त मिलकर अपने लिए धागा तैयार कर लेते थे। दस रुपए से भी कम कीमत में कच्चा धागा मिल जाता था। वहीं ईसबगोल की भूसी, चड़स, रंग और पीसा हुआ बारीक कांच भी तैयार मिलता था। कई युवा कांच भी घर के पुराने फ्यूज बल्ब, ट्यूबलाइट्स को कपड़े में लपेटकर टुकड़े करते और पीसते थे। चार सौ मीटर और नौ सौ मीटर धागे को पतंगबाजी के लिए तैयार करने का काम या तो खुले मैदान में होता या घर की छत पर मांझा तैयार किया जाता था।
नई पीढ़ी अनभिज्ञ

गांधीमूर्ति पर लगी दुकानों पर पतंग और धागा खरीदने आए 18 वर्षीय युवक हिमांशु से हाथ के बने धागे के बारे में पूछा तो उसने अनभिज्ञता जताई। उसने कहा कि हाथ से बना मांझा उसने तो देखा ही नहीं है। यहीं एक दुकान पर बरेली के धागे का मोल-भाव करते युवक अमित ने कहा कि उसके चाचा बताते थे कि वे खुद मांझा बनाते थे, लेकिन उसने इसे कभी बनते नहीं देखा। वह बाजार में मिलने वाले बरेली के धागे से ही पतंग उड़ाता है।

ट्रेंडिंग वीडियो