आदिवासी बहुल क्षेत्र बांसवाड़ा व डूंगरपुर में प्राकृतिक संपदा चहुंओर बिखरी है, लेकिन यहां औद्योगिक इकाईयां एवं कामकाज के अवसर जरूरत के मुताबिक नहीं होने से क्षेत्र के हजारों परिवार गुजरात, एमपी व महाराष्ट्र व आसपड़ोस के जिलों में पलायन कर चुके हैं। जबकि हजारों ही लोग पेट पालने के लिए अपना वतन छोड़ कर खाड़ी देशों में रोजी रोटी कमाने गए हुए हैं। इनमें खाड़ी देश कुवैत से तो वागड़ क्षेत्र का गहरा नाता है।
बोहरा समाज सर्वाधिक
वागड़ के जिलों बांसवाड़ा और डूंगरपुर के साथ ही आसपास के जिलों के कई गांवों के लोग सालों से खाड़ी देशों में हैं। इनमें अस्सी फीसदी लोग कुवैत में है। जबकि बीस फीसदी दुबई, बहरीन व कतर में हैं। बांसवाड़ा शहर के बोहरा समाज के करीब तीन हजार घरों के लोग कुवैत में हैं। इसी प्रकार जिले से ही मुस्लिम समुदाय के साथ ही मुख्यत: पाटीदार, पंचाल, तेली, जैन, ब्राह्मण समाज व अन्य समाज के लोग भी बड़ी संख्या में है।
यह है कामकाज जिले में बांसवाड़ा शहर के साथ ही परतापुर व कई गांवों की उम्मीदें भी कुवैत पर टिकी हैं। प्रतापगढ़ तथा डूंगरपुर जिले में डूंगरपुर, सागवाड़ा व गलियाकोट से भी बड़ी संख्या में लोग यहां काम धंधे से जुड़े है। कुवैत गए लोग भवन निर्माण, ठेकेदारी, मजदूरी, टैक्सी चालक, मोबाइल शॉप, सैलून, मोटर गैराज, ग्लास हाउस, हाउस डेकोरेशन, होटल आदि प्रतिष्ठानों पर काम करके अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं। यहां वागड़ के कई युवाओं का आईटी सेक्टर में भी डंका है।
अब खुद दे रहे रोजगार कुवैत में की कमाई से कईयों ने बांसवाड़ा शहर में बहुमंजिला मकान बना लिए है, कईयों ने व्यवसायिक प्रतिष्ठान स्थापित कर लिए हैं। कुछेक ने होटल भी खोल ली है। जबकि कुछेक के गैराज व फार्म हाउस है। इनमें कई कुवैत छोड़ कर यहां खुद का कारोबार संभाले है और अन्यों को रोजगार दे रहे है।
कोड-वर्ड में राज बांसवाड़ा व आसपास के जिलों के गांव के लोगों के कामधंधों की पहचान कोडवर्ड में छिपी हुई है। बी फोर बीया का नाम बांसवाड़ा से जुुड़ा हुआ है। घरों में रेडीमेड व अन्य कपड़े बेचने का कार्य करने वाले बीया के नाम से जाने जाते है। इसी प्रकार पी फोर परतापुरा यानी परफ्यूम व्यवसाय, एस फोर सागवाड़ा यानी स्पेयर पाट््र्स, जी फोर गलियाकोट यानी गोल्ड आदि की पहचान है।
कोरोना पड़ गया भारी
कुवैत गए वागड़ के प्रवासियों के लिए कोराना संकट बड़ा भारी पड़ा था। लॉकडाउन के दौरान कईयों का रोजगार छीन गया। कई लौटे भी आ गए थे, लेकिन उन्हें इसके लिए मोटी राशि चुकानी पड़ी थी। प्रवासी कोविड से पहले दस से पंद्रह हजार रुपए में कुवैत जा रहे थे। लेकिन अब कईयों को एक लाख रुपए तक देने पड़ते हैं।
पहले घरों में नौकरी करते थे
दादा जी वर्ष 1955 में कुवैत में गए थे, इसके बाद परिवार के कई सदस्य भी कुवैत चले गए। 14 वर्ष तक वह भी कुवैत में रहा। पहले लोग घरों में नौकरी करते थे, लेकिन अब प्रतिष्ठानों, कंपनियों व गैराजों से जुड़े गए हैं। कईयों ने स्वयं का भी काम खोल लिया है। कुवैत के एक दिनार की कीमत भारत में 255 रुपए से अधिक है। वहां से जमा पूंजी के साथ पहनने लायक जेवरात लाने की ही मंजूरी है। कुवैत में वागड़ के हजारों लोग काम कर रहे हैं।
- नुरूद्दीन तलवाड़ावाला, बांसवाड़ा
अच्छी कमाई के लिए मैं व परिवार के अन्य लोग खाड़ी देश दुबई एवं कुवैत गए थे, लंबे समय तक काम किया, लेकिन वीसा एवं प्रवास अव धि की समस्या को लेकर जल्द स्वदेश लौटना पड़ा। यहां कुवैत में काम के कई अवसर होने के साथ ही मेहनताना भी भारत के मुकाबले अच्छा मिलता है। इससे परिवार में बरकत हो जाती है। अब मेरा यहां खुद का व्यवसाय है।
- लक्ष्मीलाल सेवक, व्यवसायी
कमाने के लिए कुवैत गया, वर्ष 2019 तक मोबाइल शॉप पर काम किया, अब अपने शहर में हूं और खुद का अलमारी लॉकर बनाने का व्यवसाय है। खाड़ी देशों में जिले के कई युवा काम कर रहे है। वीडियो कॉल व संदेशों के जरिए उनका सम्पर्क परिजनों से बना रहता है।
- मेहुल पंचाल, युवा
नए उद्योग आए तो, रूके पलायन
बांसवाड़ा एवं डूंगरपुर में रोजगार के अवसर व साधन कम है, रेलवे की कमी विकास में अखरती है। अच्छी कमाई के लिए लोग पड़ोसी राज्यों व खाड़ी देशों में जाते है, पलायन रोकने के लिए वागड़ में नए उद्योग स्थापित करने के लिए बड़े समूहों को निवेश के लिए प्रेरित किया जा रहा है, बांसवाड़ा में भी रेल चले, इसके लिए केन्द्र व राज्य सरकार पर दबाव बनाए हुए है।
- कनकमल कटारा, सांसद, बांसवाड़ा-डूंगरपुर