युवाओं ने बताया कि सोशल मीडिया के जरिए इस कार्यक्रम का प्रचार-प्रसार किया गया। सभी के मोबाइल नम्बर एक साथ नहीं हैं। इस कारण यहां पहुंचने वाले प्रत्येक व्यक्ति का मोबाइल नम्बर रजिस्ट्रर में दर्ज किया जाएगा। इसके बाद इसकी डायरेक्ट्री प्रिंट होगी, जिससे सभी एक-दूसरे के संपर्क रहें। माही से गए प्रवासियों की संतानें आज आइएएस, सेना, रेल, बैंकिंग, मीडिया जैसे क्षेत्रों में अलग-अलग जिलों व राज्यों में सेवारत हैं। इससे सभी को एक दूसरे की जानकारी मिल सकेगी।
माहीबांध में लम्बे समय से व्यापार कर रहे युगल किशोर गोयल ने कहा कि माहीबांध निर्माण के दौरान यहां सुविधाओं की कोई कमी नहीं रही। बाजार में हर जरूरत की चीज उपलब्ध थी। व्यापारी बांसवाड़ा व रतलाम से माल लाते थे। उस समय मैं स्कूल में पढ़ रहा था। मेरे पिताजी चारपाई एवं त्रिपाल बिछाकर दुकान चलाते थे। यहां बैंक, पेट्रोल पम्प, पोस्टआफिस, चिकित्सालय जैसी सुविधाएं भी थीं। सरकारी स्तर पर भी कार्मिकों के लिए आवास, आवागमन व अन्य सुविधाएं मुहैया करवाई गई थीं।
माहीडेम पर बतौर इंजीनियर सेवाएं दे चुके जगनसिंह ने बताया कि बांध की निर्माण उस समय की परिस्थितियों में मुश्किल था। देश के अलग-अलग कौने से कई अनुभवी इंजीनियर यहां काम में जुटे थे। गधों पर मिट्टी लाद कर लाई जाती थी। स्थानीय स्तर पर विरोध भी हुआ। इस पर आरएसी की तैनात कर निर्माण कार्य आगे बढ़ाया गया। माहीडेम के निर्माण में अभियंताओं की टीम के साथ ही माही माता स्वरूपी नदी की भी बहुत मेहरबानी रही कि इतने बड़े कार्य के बावजूद कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई।
माही परियोजना से सेवानिवृत्त ओमप्रकाश शर्मा ने बताया कि कोटा डेम से स्थानांतरण होकर यहां सैकड़ों कार्मिक पहुंचे थे। डेम पर काम करने का अनुभव था। लेकिन, जब बांध का प्रारंभिक स्तर पर कार्य चल रहा था तब घास-की टापरी में रहते थे। बिजली का प्रबंध नहीं था। केरोसीन सरकारी स्तर पर मिलता था उससे ही चिमनी जलाते थे। तब अधिकांश युवा ही थे शादी भी नहीं हुई थी। एक साथ ही 10 से 20 कार्मिकों का कच्चा-पक्का खाना पकाते थे। इस आयोजन में वर्षों बाद सब मिलेंगे।