चर्चा हुई और शुरू हो गया सिलसिला
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के पुजारी पं. हरीश शर्मा ने बताया कि वर्ष 1984 में अखंड अन्न क्षेत्र सेवा समिति बनी थी। जिसके एक साल बाद वर्ष 1985 में गणेश प्रतिमा की स्थापना की गई थी। हुआ यूं था कि समिति के तत्कालीन अध्यक्ष मुकुट जोशी के साथ सभी लोग चर्चा कर रहे थे। तभी गणेश प्रतिमा स्थापित करने पर सहमति बनी और सिलसिला शुरू हो गया।
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के पुजारी पं. हरीश शर्मा ने बताया कि वर्ष 1984 में अखंड अन्न क्षेत्र सेवा समिति बनी थी। जिसके एक साल बाद वर्ष 1985 में गणेश प्रतिमा की स्थापना की गई थी। हुआ यूं था कि समिति के तत्कालीन अध्यक्ष मुकुट जोशी के साथ सभी लोग चर्चा कर रहे थे। तभी गणेश प्रतिमा स्थापित करने पर सहमति बनी और सिलसिला शुरू हो गया।
हाथों से बनाई गई थी पहली प्रतिमा
समिति से जुड़े पूर्व चिकित्सा मंत्री भवानी जोशी ने बताया कि तत्कालीन समिति अध्यक्ष मुकुट जोशी, दिनेश वैष्णव एवं अन्य समिति के सदस्यों ने मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाई थी। यह क्रम दो तीन वर्षों तक चला। उसके बाद से लगातार गणेशोत्सव का क्रम जारी है। और अब बांसवाड़ा में यह उत्सव वृहद रूप ले चुका है।
समिति से जुड़े पूर्व चिकित्सा मंत्री भवानी जोशी ने बताया कि तत्कालीन समिति अध्यक्ष मुकुट जोशी, दिनेश वैष्णव एवं अन्य समिति के सदस्यों ने मिट्टी की प्रतिमा हाथों से बनाई थी। यह क्रम दो तीन वर्षों तक चला। उसके बाद से लगातार गणेशोत्सव का क्रम जारी है। और अब बांसवाड़ा में यह उत्सव वृहद रूप ले चुका है।
किराया अधिक पडऩे पर यहीं मनाने का विचार आया
मंडल के सक्रिय सदस्य चंद्रपाल सोनी (कूका भाई) ने बताया कि हम साथी लोग इंदौर जाते थे गणेश उत्सव में शिरकत करने के लिए। सन 1987 में जब सदस्यों की संख्या ज्यादा हो गई तो आने-जाने के किराए का अनुमान लगाया तो वही सिर्फ 6 हजार रुपए बैठा। इसके बाद अन्य खर्चे अलग। तो सभी सदस्यों ने यही अनुमान लगाया कि जब इतना ही खर्च करना है तो अपने यहां ही उत्सव मनाया जाए। जिसके बाद सभी लोगों ने चर्चा की और सहमति के बाद गणेश उत्सव मनाने का निर्णय किया गया।
मंडल के सक्रिय सदस्य चंद्रपाल सोनी (कूका भाई) ने बताया कि हम साथी लोग इंदौर जाते थे गणेश उत्सव में शिरकत करने के लिए। सन 1987 में जब सदस्यों की संख्या ज्यादा हो गई तो आने-जाने के किराए का अनुमान लगाया तो वही सिर्फ 6 हजार रुपए बैठा। इसके बाद अन्य खर्चे अलग। तो सभी सदस्यों ने यही अनुमान लगाया कि जब इतना ही खर्च करना है तो अपने यहां ही उत्सव मनाया जाए। जिसके बाद सभी लोगों ने चर्चा की और सहमति के बाद गणेश उत्सव मनाने का निर्णय किया गया।
बदला क्लब का नाम
कूका भाई ने बताया कि उस समय क्लब में तकरीबन 26 सदस्य थे। सभी ने उत्सव मनाने का निर्णय तो ले लिया लेकिन क्लब के नाम से धार्मिक आयोजन करना खटक रहा था। गुरुजी से चर्चा करने के बाद क्लब का नाम परिवर्तित कर न्यू वागड़ मंडल रखा गया।
कूका भाई ने बताया कि उस समय क्लब में तकरीबन 26 सदस्य थे। सभी ने उत्सव मनाने का निर्णय तो ले लिया लेकिन क्लब के नाम से धार्मिक आयोजन करना खटक रहा था। गुरुजी से चर्चा करने के बाद क्लब का नाम परिवर्तित कर न्यू वागड़ मंडल रखा गया।
काफी कठिनाइयां आईं
उन्होंने बताया कि मूर्ति लाना एक बड़ी समस्या थी। लेकिन सभी लोग मूर्ति स्वयं बनवाना चाहते थे। जिस कारण मंडल से दो तीन लोग रतलाम गए और कारीगर को ढूंढ बांसवाड़ा लाए और पहली बार 11 फीट की मूर्ति बनवाई। उन्होंने बताया कि जैसा आयोजन और व्यवस्था पहली बार थी वैसी ही आज भी हैं। मूर्तिकार, मूर्ति का आकार, पूजन करने वाला या पूजन सामग्री का क्रय स्थान। सभी कुछ वैसा ही है।
उन्होंने बताया कि मूर्ति लाना एक बड़ी समस्या थी। लेकिन सभी लोग मूर्ति स्वयं बनवाना चाहते थे। जिस कारण मंडल से दो तीन लोग रतलाम गए और कारीगर को ढूंढ बांसवाड़ा लाए और पहली बार 11 फीट की मूर्ति बनवाई। उन्होंने बताया कि जैसा आयोजन और व्यवस्था पहली बार थी वैसी ही आज भी हैं। मूर्तिकार, मूर्ति का आकार, पूजन करने वाला या पूजन सामग्री का क्रय स्थान। सभी कुछ वैसा ही है।
चंदे में आई दिक्कत तो बदली व्यवस्था
कूका भाई ने बताया कि वर्षों तक बाजार और मोहल्ले से चंदा किया जाता रहा। लेकिन जब शहर में उत्सव का क्रेज बढ़ा और अधिक मंडल मूर्तियों की स्थापना करने लगे तो व्यापारियों और लोगों के सामने भी दिक्कत आने लगी जिसे देख मंडल सदस्यों ने स्वयं के स्तर पर फंड जुटाने का कार्य किया और मंडल के सदस्यों को ही जिम्मेदारी दी जाने लगी। जिसके बाद अब किसी पर अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ता और श्रद्धालु स्वेच्छा से आगे आकर मूर्ति, सजावट या
अन्य किसी व्यवस्था की जिम्मेदारी लेते हैं।
कूका भाई ने बताया कि वर्षों तक बाजार और मोहल्ले से चंदा किया जाता रहा। लेकिन जब शहर में उत्सव का क्रेज बढ़ा और अधिक मंडल मूर्तियों की स्थापना करने लगे तो व्यापारियों और लोगों के सामने भी दिक्कत आने लगी जिसे देख मंडल सदस्यों ने स्वयं के स्तर पर फंड जुटाने का कार्य किया और मंडल के सदस्यों को ही जिम्मेदारी दी जाने लगी। जिसके बाद अब किसी पर अतिरिक्त आर्थिक भार भी नहीं पड़ता और श्रद्धालु स्वेच्छा से आगे आकर मूर्ति, सजावट या
अन्य किसी व्यवस्था की जिम्मेदारी लेते हैं।
आजाद चौक : पहले जाते थे इंदौर
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के बाद आजाद चौक पर उत्सव मनाना शुरू किया गया जो अनवरत जारी है। वर्ष 1987 से पूर्व आजाद चौक और शहर के अन्य क्षेत्रों के युवाओं का दल गणेश उत्सव देखने के लिए इंदौर की ओर रुख करता था। तत्कालीन न्यू वागड़ क्रिकेट क्लब के युवा सदस्य एकजुट होकर इंदौर जाते और उत्सव के बाद वापस लौट आते।
त्र्यम्बकेश्वर मंदिर के बाद आजाद चौक पर उत्सव मनाना शुरू किया गया जो अनवरत जारी है। वर्ष 1987 से पूर्व आजाद चौक और शहर के अन्य क्षेत्रों के युवाओं का दल गणेश उत्सव देखने के लिए इंदौर की ओर रुख करता था। तत्कालीन न्यू वागड़ क्रिकेट क्लब के युवा सदस्य एकजुट होकर इंदौर जाते और उत्सव के बाद वापस लौट आते।