ट्राइबल म्यूजियम: गोविन्द गुरु के पुरुषार्थ और जनजातीय संस्कृति को संजोने का प्रयास
गोविन्द गुरु जनजतीय विश्वविद्यालय ने गोविन्द गुरु के जीवंत स्वतंत्रता संघर्ष और समाज सुधार के प्रयासों और जनजातीय जीवन शैली को अवगत कराने के लिए ट्राइबल म्यूजियम की स्थापना की है। पायलट प्रोजेक्ट रूप में स्थानीय शिल्पकारों, कलाकारों और प्रतिभाओं को विवि परिसर में स्थान उपलब्ध करवा कर जनजातीय जीवन शैली, कला, शिल्प, खानपान, कौशल, दैनिक जीवन में प्रयोग में आने वाले उपकरणों को ऐसे संजोया है, जिससे म्यूजियम में जनजातीय जीवन का दिग्दर्शन होता है।
यह है भावी योजनाएं कुलपति प्रो. आईवी त्रिवेदी ने भावी योजना के संबंध में बताया कि ट्राइबल म्यूजियम को वृहद् स्वरूप दिया जाएगा और इसमें देश की जनजातीय जीवन शैली, उपयोगी उपकरणों को इस तरह से प्रस्तुत किया जाएगा, जिससे दर्शक जनजातीय जीवन का अनुभव कर सकें। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सेवा में उत्सर्ग करने वाले अमर योद्धाओं, समाज सेवकों के कार्यों को साबरमती आश्रम की तर्ज पर संजोने की योजना है, जिससे वर्तमान पीढ़ी प्रेरित हो सके। अंचल के जनजातीय युवाओं की वैश्विक बाजार में उपस्थिति के लिए कौशल विकास की योजना भी बना रहे हैं। संग्रहालय अतीत के प्रति सम्मान के साथ कला के संरक्षण और भविष्य निर्माण की राह प्रशस्त करने और जीवन पद्धति को जानने का अवसर प्रदान करने वाला बने, इसका प्रयास किया जाएगा।
वाद्य यंत्र व उपकरणों का आकर्षण ट्राइबल म्यूजियम में स्थानीय कलाकारों की उकेरी पेंटिंग, मिटटी के खिलौने, वेशभूषा, आभूषण, मिटटी के उपकरण, वाद्य यंत्र, ग्रामीण घरेलू रसोई उपकरण, अनाज और सामग्री संग्रहण के देसी मिटटी के कोठार, बांस के बने बर्तन आकर्षण का केंद्र हैं। कुलसचिव गोविन्द सिंह देवड़ा व डाॅ. मनोज पंड्या बताते हैं कि यहां जनजातीय पुरुष मॉडल, महिला मॉडल, स्वतंत्रता सेनानी, अमर योद्धा, बांस व घास की झोपड़ी का मॉडल बनाया है। ट्राइबल म्यूजियम प्रोजेक्ट को डॉ. लक्ष्मणलाल परमार के नेतृत्व व कला साधिका डॉ. मालिनी काले के संयोजन में चंदा डामोर, आशीष गणावा व स्थानीय कलाकारों के सहयोग से पूरा किया है।
…………………………………………………………………………………………………………
जनजाति समाज के पुरोधा संत सुरमालदास: सीसा पीकर भी नहीं डिगा हाड़मांस का पुतला जनजाति अंचल में भक्ति और देशप्रेम की अलख जगाने वाले संत सती सुरमाल दास को इतिहास और भविष्य कभी नहीं भुला पाएगा। किवदंतियों और शोधकर्ताओं के मुताबिक सुरमालदास का जन्म सन 1823 माघ शुक्ल दूज को पाटिया बलीचा में हुआ। दूरसंचार मंत्रालय दिल्ली से सेवानिवृत्त एडीजी एल.पी.कोटेड़ ने उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर शोध किया है। कोटेड़ के अनुसार सुरमालदास बचपन से कठोर परिश्रमी तथा भक्ति भावना से ओतप्रोत थे। गुजरात के शामलाजी के समीप लसुडिय़ा में कठोर तपस्या की। समाज को नशामुक्त और शिक्षित बनाने पर जोर दिया। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफत करने पर अंग्रेजी हुकूमत की यातनाएं झेली। उन्हें सीसा तक पिलाया। 31 दिसम्बर 1898 को वह समाधिस्थ हुए। लसुडिय़ा धाम पर उनका मंदिर बना है, जहां पूर्णिमा पर हजारों श्रद्धालु आते हैं। उनके अनुयायी भक्ति की अलख जगा रहे हैं।
——– राणा पूंजा भील मेवाड़ की शौर्यगाथा में महाराणा प्रताप के साथ राणा पूंजा का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है। राणा पूंजा का जन्म मेरपुर में हुआ था। पिता का देहांत होने से मात्र 15 वर्ष की आयु में उन्हें मुखिया की जिम्मेदारी सौंपी गई। अपने शौर्य और प्रजा वत्सल्यता के कारण वे मेवाड़ में लोकप्रिय हुए। 1576 में मेवाड़ पर मुगलों के आक्रमण के दौरान महाराणा प्रताप के साथ मुकाबला किया। उनकी अगवाई में लड़े गए गुरिल्ला युद्ध से ही मुगल सेना पस्त हो गई थी। पूंजा के पराक्रम को देखते ही महाराणा ने उन्हें राणा की उपाधि दी तथा मेवाड़ की रक्षा में भील समाज के योगदान को देखते हुए राजचिन्ह में भील प्रतीक को अपनाया।
———————– गोविन्द गुरू वागड़ के स्वाधीनता संग्राम के अग्रदूत, समाज सुधारक गोविन्द गुरू का जन्म डूंगरपुर के बेड़सा (बांसिया) गांव में 20 दिसम्बर, 1858 को हुआ। बाल्यकाल से पढ़ाई लिखाई के साथ धार्मिक व आध्यात्मिक विचारों को आत्मसात किए गोविन्द गुरू पर स्वामी दयानंद के विचारों का प्रभाव रहा। सामाजिक कुरीतियों, दमन व शोषण से जूझ रहे समाज को उबारने के लिए 1903 में सम्प सभा का गठन किया। इसकी गतिविधियों का केन्द्र मानगढ़ धाम बना। सन 1913 में मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर गोविन्द गुरू के नेतृत्व में सम्प सभा हुई। हजारों आदिवासी भगत एकत्र होकर सामाजिक सुधार गतिविधियों व धार्मिक अनुष्ठानों में व्यस्त थे। इसी दौरान अंग्रेजी फौज ने मानगढ़ पहाड़ी को घेरकर फायरिंग की। 1500 से अधिक लोग काल कलवित हो गए। गोविन्द गुरू भी पांव में गोली लगने से घायल हो गए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में फांसी की सजा सुनाई, जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदला। फिर सजा कम करते हुए 1923 में संतरामपुर जेल से रिहा किया। इसके बाद 1923 से 1931 तक भील सेवा सदन झालोद के माध्यम से लोक जागरण, भगत दीक्षा व आध्यात्मिक विचार क्रांति का कार्य करते हुए वे 30 अक्टूबर, 1931 को ब्रह्मलीन हो गए।
————–
कालीबाई व नानाभाई खांट
रास्तापाल गांव में जन्मी कालीबाई की गुरु भक्ति का अनोखा उदाहरण है। जून 1947 मेें आजादी का आंदोलन यौवन पर था। रास्तापाल गांव में नानाभाई एवं सेंगा भाई शिक्षा की अलख जगाने के साथ ही अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध जनमानस तैयार कर रहे थे। अंग्रेजों को नानाभाई व सेंगा भाई का अभियान नागवार गुजरा। सैनिक रास्तापाल गांव गए और नानाभाई पर हमला बोल दिया। बंदूक के कुंदों से वार कर मरणासन्न कर दिया। सैनिकों ने सेंगाभाई को बांधकर जीप दौड़ाई। उस समय आदिवासी शिष्या कालीबाई ने गुरु की जान को संकट में देखा। वह दांतली लेकर आगे आई और रस्सी काट दी। इससे गुस्साये सैनिकों ने कालीबाई को गोलियों से छलनी कर दिया।
————–
भील आदिवासियों का प्राचीन इतिहास लिपिबद्ध नहीं होकर किंवदंतियों, वार्ताओं और कथा कहानियों में सुरक्षित है। इन्हीं को लिपिबद्ध करने का प्रयास कर टिमुरूवा के मनमोहन पारगी ने ‘भील राजा बांसिया चरपोटा का बांसवाड़ा’ पुस्तक प्रकाशित की। इसके अनुसार बांसिया चरपोटा राजा बापड़ा के वंशज थे और मलारगढ़ व चित्तौड़गढ़़ पर भी शासन किया। बांसिया अमरथून में हूंनगर डूंगरी पर रहते थे। उनके भाई भाहिया चरपोटा भी रहते थे। राज्य विस्तार के साथ दोनों ने 14 जनवरी 1515 में बांसवाड़ा की स्थापना की। तिलपपड़ी का प्रसाद वितरित किया। इसे वाहवारू भी कहा गया। भील राजा बांसिया चरपोटा की प्रतिमा का अनावरण भैरोसिंह शेखावत ने भीमकुंड में 11 अप्रेल 2003 को किया था। अश्वसवार प्रतिमा नगर परिषद के मुख्य द्वार के समीप है।
…………………………
सीएम ने की मानगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की पैरवी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर बांसवाड़ा में स्थित मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग की है।
गहलोत ने पत्र में अवगत कराया कि 1913 में मानगढ़ में गोविन्द गुरू के नेतृत्व में एकत्रित वनवासियों पर ब्रिटिश सेना ने फायरिंग की। इसमें 1500 से अधिक वनवासियों ने अपना बलिदान दिया। वनवासियों के बलिदान एवं गोविन्द गुरू के योगदान को रेखांकित करने राज्य सरकार ने मानगढ़ में जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय बनाया है। बांसवाड़ा, डूंगरपुर के जनप्रतिनिधियों की ओर से मानगढ़ को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग लम्बे समय से की जा रही है। उन्होंने मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा देने का आग्रह किया, जिससे बलिदानियों एवं संत गोविन्द गुरू को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की जा सके।
………………………………
शिक्षा की सीढिय़ों से सफलता के सोपान छू रहा प्रदेश के जनजाति बहुल बांसवाड़ा व डूंगरपुर जिले कुछ वर्षों पहले तक अशिक्षा, गरीबी और अभावों का पर्याय रहा जनजाति समाज शिक्षा की सीढिय़ों पर चढ़ते हुए सफलता के सोपान छू रहा है। हालांकि अभाव आज भी हैं, किंतु जनजाति समाज का एक बड़ा तबका दुनिया से कदमताल करते हुए कई मोर्चाे पर आगे बढ़ चुका है। बदलाव की बयार यह शिक्षा, चिकित्सा, अभियांत्रिकी, कला-संस्कृति आदि में दिखाई पड़ रही है।
बीते वर्षों में शिक्षा के प्रति जागरुकता के बाद जनजाति वर्ग के युवाओं की रुचि प्रशासनिक सेवाओं के प्रति भी बढ़ी है। 2018 में बांसवाड़ा के घाटोल की अवनि बामनिया ने सिविल सेवा की परीक्षा उत्तीर्ण की। इससे पहले बांसवाड़ा के राजेंद्र कुमार भी आईपीएस बने। डूंगरपुर से गत वर्ष यूपीएससी परीक्षा में मोना रोत का चयन हुआ, जो डूंगरपुर की पहली महिला आइएएस रही। इनके अतिरिक्त कई जनजाति युवा राज्य प्रशासनिक सेवा तथा राजस्व सेवा में जिम्मेदारी निभा रहे हैं।
150 से ज्यादा चिकित्सक, सैकड़ों कतार में
कुछ वर्षों पहले तक दोनों जिलों के अस्पतालों में चिकित्सकों का टोटा था। बाहर से आने वाले चिकित्सक टिकते नहीं थे। चिकित्सकों की मांग पर ताने भी अंचलवासियों ने सुने। अब हालात बदल रहे हैं। अकेले डूंगरपुर-बांसवाड़ा में 150 से अधिक चिकित्सक विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। वहीं करीब 300 से 400 युवा एमबीबीएस की पढ़ाई कर इस कतार में जुडऩे को तत्पर हैं।
इंजीनियर भी शतक पार शैक्षिक उन्नयन के चलते इंजीनियर्स की संख्या भी लगातार बढ़ी है। पीडब्ल्यूडी, जल संसाधन, विद्युत निगम, पंचायतीराज आदि विभागों में बांसवाड़ा व डूंगरपुर में इनकी संख्या लगभग 100 है। यहां के कई इंजीनियर्स अन्य जिलों में भी कार्यरत हैं। बड़ी संख्या में विद्यार्थी इंजीनियरिंग के विभिन्न सेक्टर्स में अध्ययनरत हैं।
शिक्षक से लेकर व्याख्याता तक डॉक्टर-इंजीनियर्स के अलावा शैक्षिक पदों पर भी जनजाति समाज का दबदबा बढ़ा है। तृतीय श्रेणी, द्वितीय श्रेणी शिक्षक, व्याख्याता, कॉलेज व्याख्याता, कृषि अधिकारी सहित कई अन्य पदों पर भी बड़ी संख्या में जनजाति समाज के लोग पदस्थ हैं।
पढऩे लगी बेटियां कुछ दशक पहले तक स्कूलों में बेटियां का नामांकन काफी कम हुआ करता था। शिक्षा के प्रति आदिवासी समाज में जागृति के कारण अब स्थिति बदल चुकी हैं। विद्यालयों के नामांकन में बेटियां बेटों की तुलना में आगे हैं। इनमें जनजाति समाज का नामांकन 70 फीसदी के आसपास है।
………………………………………………….
आदिवासी बेटी की पाती सभी वागड़वासियों को आदिवासी दिवस की शुभकामनाएं। आज आदिवासी दिवस पर न केवल आदिवासी समाज, अपितु वागड़वासियों को यह संदेश देना चाहती हूं कि धर्म, जात-पात, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब से ऊपर उठकर स्वयं को अच्छा इंसान बनाइए। बेटियों को अच्छी शिक्षा दें। आदिवासी भाई-बहन स्वयं और समाज को विकसित करने का प्रयास करें। हमेशा जमीन से जुड़े रहे।अपनी संस्कृति को बढ़ावा दे। संस्कृति ही हमारी पहचान है। बेटियों का सपना पूरा करने में मदद करें। समय बदलने के साथ सबकी सोच बदली है। आज वागड़ से चिकित्सक, इंजीनियर, अधिकारी सहित राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय प्रतिभाएं उभर कर सामने आ रही हैं। आज संकल्पित होना होगा कि हम सभ्यता और संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित कर वागड़ में आपसी सौहार्द एवं प्रेम को बनाए रखें। परिवार, समाज और क्षेत्रीय उत्थान के लिए जुट जाए।
( डा. दिव्यानी कटारा, मूलत: डूंगरपुर की हैं। उदयपुर की सेव द गर्ल ब्राण्ड एम्बेसडर है। वे आदिवासी अंचल की पहली एक्टर, कास्टिंग डायरेक्टर व सामाजिक कार्यकर्ता है। उन्हें कई पुरस्कार मिले हैं।)
………………………………………………….
मानगढ़ में हुआ था आदिवासियों का नरसंहार
मानगढ़ धाम हत्याकांड बांसवाड़ा में जालियांवाला बाग़ हत्याकांड से 100 साल पहले 17 नवम्बर, 1913 में हुआ था। बांसवाड़ा जिले की आनंदपुरी पंचायत समिति की ग्राम पंचायत आमलिया आम्बादरा अंतर्गत आंबादरा में एक हजार फीट ऊंची पहाड़ी है, जो मानगढ़ धाम के रूप में जाती हैं। वर्ष 1913 में गोविन्द गुरु के नेतृत्व में अंग्रेजों से स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए लगभग 1500 से अधिक आदिवासी शहीद हुए थे।
यह घटना भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की किताब का बहुत बड़ा अध्याय रही है। ब्रिटिश सरकार की माने तो इस हत्याकांड में 379 लोग मारे गए और 1200 से अधिक घायल हुए। इन्हीं की शहादत की याद दिलाता यह मानगढ़ धाम गुजरात और मध्यप्रदेश के आदिवासियों में अपार आस्था का केन्द्र स्थल है।