शानदार परंपरा : 168 सालों से बारां जिले के इस कस्बे में हर साल जीवंत हो उठता है 'रामयुग'... जब मंच पर उतरते हैं मंझे हुए किरदार
होली का ठूंठ उगाने से बनता है रामलीला का माहौल, अभिनय व मंचीय अनुशासन का पक्ष गौण है। हारमानियम, ढोलक, मंजीरे और नगाड़ों की ध्वनि के बीच रातभर मंत्रमुग्ध रहते हैं दर्शक
बारां
Updated: April 07, 2022 11:07:38 pm
मांगरोल. होली की हुड़दंग के साथ ठूंठ उगाने से शुरु हुआ रामलीला का उत्सव यहां चैत्र सुदी की एकादशी तक चलता है। रामलीला से पहले होली पर कलाकार उन परिवारों में जाते हैं, जहां एक वर्ष के दौरान बच्चे का जन्म हुआ हो। वहां भजन-कीर्तन करते हैं। जन्म की खुशियां मनाते हैं। उनसे रामलीला के लिए भेंट लाते हैं। चैत्र सुदी एकम से शुरु होने वाली रामलीला की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें अभिनय व मंचीय अनुशासन का पक्ष गौण है। हारमानियम, ढोलक, मंजीरे और नगाड़ों की ध्वनि के बीच मंत्रमुग्ध दर्शक रातभर बैठे रहते हैं। सारी रात चलने वाले कव्वाली मुकाबले की तरह ढ़ाई कड़ी की रामलीला में हाड़ौती की तुकबंदी और संगीत का अनोखा मेल है। इसमें कव्वाली की तरह ही कोरस गाने वाले साथी यहां भी तान झेलते हैं। मुख्य पात्र ने जिस कड़ी को गाया, उसी लय ताल में नीचे बैठे लोग उसे दोहराते हैं। इसके रस और आनंद में मंत्रमुग्ध श्रोता को समय का ख्याल ही नहीं रहता। रात के प्रहर बदलने के साथ ही रामलीला की राग भी बदलती रहती है।
नए कलाकार तैयार
कई बरसों बाद रामलीला में अब नए कलाकार तैयार होने लगे हैं। ढ़ाई कड़ी के नए कलाकारों के फॉर्म में आ जाने से अब रामलीला के आगे भी चलते रहने की संभावना बनी है।
पोथी का महत्व
ढ़ाई कड़ी दोहे की रामलीला में पोथी का महत्व इस कदर है कि अगर प्रॉम्पटर (पोथी बांचकर अभिनेता को पीछे से चुपके से ढ़ाई कड़ी कहने वाला) नहीं हो तो रामलीला का मंचन ही असंभव है। क्योंकि निरंतर पद्य (ढ़ाई कड़ी में) चलने वाले संवादों को गाना संभव नहीं है। तुलसीकृत रामायण, राधेश्याम रामायण या नाथूलाल गौड़ की रामलीला कहने में किसी को कोई दिक्कत नहीं होती है। क्योंकि इनकी छपी पुस्तकें सस्ते मुल्य पर बाजार में सहज उपलब्ध रहती हैं। लेकिन यह सुविधा ढ़ाई कड़ी के साथ नहीं है। क्योंकि इसमें सब कुछ पोथी (किताब) पर निर्भर है। अगर किताब नहीं हो तो रामलीला दस कदम भी आगे नहीं बढ़ सकती है। इसी का परिणाम है कि पिछले 168 सालों में हाड़ौती में अनुदित ढ़ाई कड़ी की रामलीला की परंपरा आज तक अपनी मिसाल के तौर पर जीवंतता बनाए हुए है।
1849 में हुई रामलीला की शुरूआत
महाराव रामङ्क्षसह द्वितीय के जमाने में सन 1849 में रामलीला की शुरुआत हुई्र। 1934 में 22 फरवरी को कोटा के महाराज कुमार के जन्म की खुशी में उनके पिता ने मांगरोल में चांदनी भेंट की थी। तब रामलीला इसी विशाल चांदनी के नीचे होती थी। अब टैंट लगाए जाते हैं।

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