scriptआजादी के 75 साल…पश्चिमी सीमा के गांवों को विकास के सूर्योदय का इंतजार | The villages of the western border await the sunrise of development | Patrika News

आजादी के 75 साल…पश्चिमी सीमा के गांवों को विकास के सूर्योदय का इंतजार

locationबाड़मेरPublished: Oct 22, 2021 10:17:48 pm

Submitted by:

Mahendra Trivedi

बिजली, न पानी, सड़क और न मोबाइल टॉवर
मूलभूत सुविधाओं की जंग लड़ रहे गांव
ग्राम पंचायत मुख्यालय पर मोबाइल टॉवर नहीं

आजादी के 75 साल...पश्चिमी सीमा के गांवों को विकास के सूर्योदय का इंतजार

आजादी के 75 साल…पश्चिमी सीमा के गांवों को विकास के सूर्योदय का इंतजार

रतन दवे
बाड़मेर . आजादी के 75 साल बाद आप ऐसे गांवों की कल्पना कर सकते है जहां आज भी आठ किलोमीटर दूर से डाकिया डाक लेकर आता हों। सड़क के अभाव में चार से पांच किलोमीटर दूर से बस पकडऩी पड़े और दुनियां पूरी मोबाइल पर बातें कर इंटरनेट का उपयोग करें और इन गांवों में मोबाइल की टॉवर ही नहीं हों। पानी की योजनाएं दूर-दूर तक नहीं और खारा पानी पीने की मजबूरी। ऐसे गांव है पश्चिमी सीमा के बाड़मेर जिले में जहां 100-200 की आबादी के राजस्व गांवों में जो राष्ट्रीय मरू उद्यान क्षेत्र और बॉर्डर के आखिर में है। मूलभूत सुविधाओं की जंग लड़ रहे इन गांवों के लोगों ने 1947 के बंटवारे में पाकिस्तान जाने की बजाय भारत में रहना बेहतर समझा। 1965 और 1971 का युद्ध हुआ तो वे पाकिस्तान छोड़कर भारत आए और सीमा के आखिर में बसे हुए देश के रक्षक की भूमिका निभा रहे है।
बाड़मेर जिले के बंधड़ा और खबड़ाला ग्राम पंचायतों सहित आसपास की पंचायतों में गांवों में यह हाल है। बंधड़ा ग्राम पंचायत मुख्यालय पर मोबाइल टॉवर नहीं है। 74 वर्ष के बुजुर्ग रूघसिंह कहते है कि मरूउद्यान का इलाका होने से यहां टॉवर की इजाजत नहीं दी जा रही है और हम गांव छोड़कर अब कहां जाएं? बंधड़ा का ही राजस्व गांव है पत्ते का पार,यहां पहुंचकर लगता है कि विकास ने यहां कदम ही नहीं रखा है। पानी, बिजली,सड़क कोई सुविधा नहीं है। 80 की उम्र की नबीयत कहती है कि एक ट्युबवेल खुदवाया वो भी खारा निकल गया…पानी के लिए मीलों पैदल चलना पड़ता है। चिमनी और लालटेन की रोशनी से ही अब तक हमारी जिंदगी गुजर रही है। आगे बढऩे पर पीपरली गांव पहुंचे, हालात सुनकर लगता है कि सरहद के इन आखिरी गांवों की सुनवाई करने शायद ही कोई आता है। बिजली, पानी और सड़क का अता पता नहीं हे। पांचवीं तक का स्कूल है,जहां एक शिक्षक है। सरगूवाला, मायियाणी, मठाराणी, कलजी की ढाणी,बचिया जैसे आसपास के 100-150 घरों की आबादी वाले दर्जनों गावों में यह हालात है।
राष्ट्रीय मरूउद्यान से बढ़ी परेशानी
1947 से 1990 तक इन गांवों की समस्याओं को लेकर विशेष कार्य नहीं हुआ। 1990 के बाद में जब बॉर्डर विकास और अन्य योजनाओं से काम आने लगे तो ये गांव राष्ट्रीय मरू उद्यान क्षेत्र(डीएनपी) में होने का मुद्दा गर्मा गया और यहां पर विकास के कार्य पर रोक लग गई है। लिहाजा अब यहां पर मूलभूत सुविधाओं का विकास मुश्किल हो गया है।
शिक्षा-स्वास्थ्य के ये हाल एक शिक्षक, एक एनएम
गांवोंं पांचवीं आठवीं के स्कूलों में एक-एक शिक्षक लगे हुए है, सरकारी कार्य या निजी कार्य से ये नहीं आते उस दिन स्कूल के ताला लग जाता है। एक-एक एएनएम है, वे भी यहां नौकरी को सजा से कम नहीं मानती है। लिहाजा यहां पर शिक्षा और स्वास्थ्य के हाल खराब है।
योजनाएं है लेकिन करें क्या?
– पंडित दीनदयाल योजना में बिजली कनेक्शन
– मनरेगा योजना में सड़कें और निर्माण कार्य
– बीएडीपी(सीमा क्षेत्र विकास प्रोग्राम) में निर्माण कार्य
– चिकित्सा-सवास्थ्य विभाग की विभिन्न योजनाएं
हालात नहीं बदले
गांवों में हालात नहीं बदले है। मोबाइल टॉवर नहीं लग रहा है। आज सबसे बड़ी जरूरत है। हर व्यक्ति के पास मोबाइल है लेकिन टॉवर नहीं होने से परेशान है। सरकार इन गांवों के विकास की अलग योजनाएं बनाएं- मदनसिंह सोढ़ा, सरपंच बंधड़ा
राहत दे, लोग आहत
सरकार राहत दे, बॉर्डर के आखिरी गांवोंं में आजादी के 75 साल बाद यह हालात है। बिजली, पानी, सड़क की सुविधा ही नहीं मिल रही। कोई बीमार हो जाए तो उसके लिए तो दूरी भारी पड़ जाती है।- गोरधनसिंह सोढ़ा, सरपंच खबड़ाला
कार्य प्रभावित है
सीमाक्षेत्र के गांवों में डीएनपी (राष्ट्रीय मरू उद्यान) की वजह से कार्य प्रभावित है। मूलभूत कार्यों के लिए छूट दी है। मोबाइल टॉवर व अन्य मामलों को लेकर भी पैरवी करेंगे। प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देशित किया जाएगा।- हरीश चौधरी, राजस्व मंत्री
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