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मेरे जीवन पर टिकी है शिकारियों की नजर…

locationबस्सीPublished: May 15, 2018 11:15:56 pm

Submitted by:

Arun sharma

मैं कई रंग बदलता हूं, सुनहरे पंख फैलाकर नाचता हूं, जंगल और मानव बस्ती मेरा ठिकाना व भारतीय संस्कृति में मेरी ‘पहचान’ है।

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अरुण शर्मा
जयपुर। कई रंग बदलता हूं। अपने चटक नीले सुनहरे पंखों को फैलाकर नाचता हूं, मेरा नांच देखकर बच्चे-बड़े सब खुश होते हैं। सूखे जंगल और मानव बस्ती भी मेरा ठिकाना है। भारतीय संस्कृति में मेरी ‘पहचान’ है। मेरे पंख भगवान कृष्ण का मोर मुकुट हैं। मैं हूं राष्ट्रीय पक्षी मोर। गुणीजन मेरी पिहू-पिहू की आवाज से मानसून के आने का भेद समझते हैं। मेरी तेज आवाज से वन्य जीवों को जंगल में बाघ के होने का संकेत मिलता है, लेकिन कुछ वर्षों से मेरा डर बढऩे लगा है। मेरे सुनहरे पंखों की खातिर शिकारी मुझे जहरीला दाना डालकर धोखे से मारते हैं जबकि मैं तो स्वयं ही पंख बढऩे व नए आने पर पुराने पंख छोड़ देता हूं मोर पंखी व मुकुट बनने के लिए। मेरे गिराए पंखों का संग्रह करके उपयोग करने की अनुमति तो कानून भी देता है। शिकारियों के डर से गर्मी में भी पेड़ की सबसे ऊंची डाल पर रहना पड़ता है मुझे। शिकारियों की आंखे मेरे जीवन पर टिकी रहती हैं।
44 साथियों की मौत
मार्च के महीने में शाहपुरा के राडावास स्थित सेपटपुरा गांव में मेरे साथियों के मरने का सिलसिला शुरू हुआ और 44 साथियों की मौत के बाद रूका। मेरा दर्जा राष्ट्रीय पक्षी का है इसलिए कई अफसर आए, मेरे दाने पानी के नमूने लिए, एफएसएल रिपोर्ट आएंगी तो सोची जाएगी मेरी सुरक्षा की बात। फिर मेरे कई साथी जयपुर के अचरोल, आंतेला, बस्सी, बांसखोह, जमवारामगढ़ के जंगलों में बेमौत मरे।
अब लगातार घट रही संख्या
अब मेरी संख्या भी लगातार घटती जा रही है। वन विभाग के अधिकारी भी मेरी सुरक्षा की चिंता और दाने-पानी का इंतजाम नहीं करते। गांव कस्बों में भी मैं अब कभी-कभार दिखता हूं। अब जंगल के तालाब-कुंड, बावडिय़ां भी सूखे पड़े हैं। मेरे संरक्षण के जिम्मेदार वन विभाग के अधिकारी जलस्रोतों में टैंकर से पानी भरवाने के दावे करते हैं, लेकिन मुझे तो जंगल में हर जलस्रोत सूखा ही मिलता है।
कीटनाशक मेरी जान के दुश्मन
खेत-खलियानों में जाकर मैं अपनी प्यास बुझाता हूं लेकिन वहां भी खेती बाड़ी में पैदावार बढ़ाने के लिए डाले जानेवाले कीटनाशक मेरी जान के दुश्मन बन जाते हैं। मेरी फरियाद सुने, संरक्षण की बात सोचे, नहीं तो आनेवाली पीढिय़ां मुझे किताबों में ही पहचानेगी।
मोर की पीड़ा को जैसा अरुण शर्मा ने समझा
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