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अपने ही गांव में उपेक्षित है आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिमा

locationबस्तीPublished: Sep 15, 2019 12:52:27 pm

Submitted by:

sarveshwari Mishra

हिंदी के पुरोधा को ही हिंदी दिवस पर लोग भूलते जा रहे हैं

Ramchandra Shukla

Ramchandra Shukla

बस्ती. हिंदी और हिंदी साहित्य में दिलचस्पी रखने वालों के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल बहुत बड़ा नाम हैं, लेकिन जनपद के धरोहर आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिमा शहर के बड़े वन गांव में उपेक्षित धूल फांक रही है। आज हिंदी के पुरोधा को ही हिंदी दिवस पर लोग भूलते जा रहे हैं।

रामचंद्र शुक्ल का जन्म 4 अक्टूबर 1884 को बस्ती जिले के बहादुरपुर ब्लॉक के अगौना गांव में शरद पूर्णिमा तिथि में हुआ था। 1898 में आपने मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1901 में मिर्ज़ापुर से एंट्रेंस की। आपकी एफए व मुख़्तारी की पढ़ाई पूरी न हो सकी। आपने अपनी पहली नौकरी 1904 में मिशन स्कूल में ड्रांइग मास्टर के रूप में की। उन्होंने आनंद कादंबनी का संपादन भी लिया। 1908 में आप नागरी प्रचारणी सभा के हिंदी कोश के लिए सहायक संपादक के रूप में काशी गए।

शुक्ल जी के पिता चंद्रबली शुक्ल सरकारी कर्मचारी थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी को उस दौर में पुष्पित और पल्लवित किया था, जब देश में विदेशी भाषा का प्रभाव था। उनके पैतृक गांव अगौना में बना पुस्तकालय भी एक अदद किताब के लिए तरस रहा है।

गांव में आचार्य शुक्ल के नाम पर धर्मशाला, पुस्तकालय, वाचनालय, शोध भवन की स्थापना उनके पैतृक आवास के स्थान पर हुई। साथ ही शहर के बड़े वन गांव में एक पार्क की स्थापना हुई और मूर्ति भी लगी, लेकिन सब कुछ पूरी तरह उपेक्षित है। हाल यह है कि पार्क में मूर्ति बने आचार्य रामचंद्र शुक्ल एक अदद सम्मान के लिए तरस रहे हैं और उनके नाम पर स्थापित पुस्तकालय पुस्तक के लिए तरस रहा है।

साथ ही साहित्यकार राजेन्द्र नाथ तिवारी ने खेद जताते हुए कहा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल की उपेक्षा बस्ती के साथ-साथ पूरे देश के लिए दुर्भाग्य की बात है. हिंदी की दुर्दशा के सबसे बड़े कारक हिंदी के नाम पर लाखों रुपये लेने वाले लोग हैं। कई बार जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को आचार्य रामचंद्र शुक्ल की मूर्ति गांव से हटाकर बड़े वन चौराहे पर लगाने का आग्रह किया गया, लेकिन कोई सुनता ही नहीं है।
BY- Satish Srivastava

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