राजा खेमकरण सोगरिया ने शाही मैदान में तीन शेरों को मारा था कटारी से
भरतपुरPublished: Jan 14, 2022 12:57:08 pm
जन्म जयंती विशेष: भरतपुर शहर एवं किले के निर्माण (सन् 1743 ई.) से पूर्व तथा मुगल सम्राट शाहजहां के समय भी यहां सघन वन क्षेत्रों के मध्य बिखरे हुए अधिवास थे, इनमें मुख्यत: जाट कृषक, गुर्जर-अहीर पशुपालक तथा विविध कार्य करने वाली जातियां रहती थी, जिन पर क्षेत्रीय शासक के रूप में सोगरिया जाटों का वर्चस्व था। (विलियन्स ईर्विन लेटर मुगल)
राजा खेमकरण सोगरिया ने शाही मैदान में तीन शेरों को मारा था कटारी से
भरतपुर. जन्म जयंती विशेष: भरतपुर शहर एवं किले के निर्माण (सन् 1743 ई.) से पूर्व तथा मुगल सम्राट शाहजहां के समय भी यहां सघन वन क्षेत्रों के मध्य बिखरे हुए अधिवास थे, इनमें मुख्यत: जाट कृषक, गुर्जर-अहीर पशुपालक तथा विविध कार्य करने वाली जातियां रहती थी, जिन पर क्षेत्रीय शासक के रूप में सोगरिया जाटों का वर्चस्व था। (विलियन्स ईर्विन लेटर मुगल)
अठाहरवीं सदी के प्रारंभ में रुस्तम सोगरिया के पुत्र खेमकरण जो सोगरगढ़ के स्वामी थे, इसे उनके पूर्वज सुग्रीव ने बसाया था। इस केंद्रीय भू-भाग पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। बहादुर, साहसी एवं अजेय योद्धा खेमकरण ने अपने राजनैतिक अस्तित्व को प्रभावशाली बनाने के लिए समीपवर्ती शक्तियों जैसे थूनगढ़ के राजा चूरामन, जयपुर के शासक सवाई मानसिंह एवं मुगल शासक मुहम्मद शाह से विभिन्न स्तरों पर कूटनीतिक संबंध स्थापित कर लिए थे (एचजी कीन द फाल ऑफ द मुगल एम्पायर)। मुगल शासक ने खेमकरण सोगरिया की शक्ति एवं जनसमर्थन को स्वीकारते हुए दिल्ली से दक्षिण के शाही मार्ग को सुरक्षित रखने के लिए खेमकरण की सत्ता को वैधानिक मान्यता के अभाव में भी स्वीकार कर लिया तथा उसे समस्त भू-भाग से राहदारी एवं लगान, वसूल करने की अनुमति प्रदान कर दी। क्योंकि इस भौगोलिक दृष्टि से दुर्गम क्षेत्र में बलशाली खेमकरण सोगरिया को शासक पद से वंचित करना संभव नहीं था।
खेमकरण एवं चूरामन ने स्थायी सैन्य व प्रादेशिक समझौता किया तथा दोनों ने मिलकर मुगल सम्राट का राजनैतिक स्नेह प्राप्त कर लिया। सम्राट फर्रुखशियर की अनुमति से सन् 1715 ई. में मुगल दूत के रूप में कमरुद्दीन खां सोगरिया सरदार रुस्तम तथा खेमकरण से मिलने आया। इस सम्राट की ओर से ख्ेामकरण को बहादुर खां की उपाधिक भेजी गई तथा उसे समस्त काठेड़ प्रदेश (आधुनिक भरतपुर, मलाह, अघापुर, रूपवास, खानवा, सीकरी एवं पश्चिमी आगरा जिले के गांव) का वैधानिक स्वामी मान लिया। यह उपलब्धि खेमकरण के उत्थान का प्रथम वैधानिक चरण था। इसके पश्चात् इस समस्त क्षेत्र की प्रजा के अलावा समीपवर्ती क्षेत्रों के शासक भी उसे वैधानिक शासक मानने लगे। (ए सोशल ज्योग्राफी ऑफ भरतपुर प्लेन विद स्पेशल रैफरेंस टू जाट सैटिलमेंट-डॉ. शिवदेवसिंह)। सन् 1715 ई. में खेमकरण यमुना के पश्चिमी काठेड़ क्षेत्र का वास्तविक स्वामी था तथा उसने वर्तमान दुर्ग भरतपुर के स्थान पर मिट्टी का सुदृढ़ गढ़ निर्मित कर लिया। यह दुर्ग फतहगढ़ी के नाम से चर्चित था तथा सैन्य सामान, खाद्य सामग्री एवं आयुध भंडार से सुदृढ़ एवं सम्पन्न था।
1719 ई. में राजा चूरामन एवं राजा खेमकरण ने हसनपुर युद्ध में मुहम्मदशाह का सहयोग कर दिल्ली की सत्ता पर स्थापित किया। इस युद्ध में खेमकरण की ख्याति एक शक्तिशाली योद्धा के रूप में स्थापित हो गई। इस युद्ध के बाद सन् 1720 ई. में सम्राट मुहम्मद शाह ने उसे दिल्ली आमंत्रित किया। जहां उसने सम्राट के अनुनय पर शाही मैदान में एक प्रदर्शन के दौरान लगातार तीन शेरों से कुश्ती लड़कर तीनों शेरों को कटारी से मार डाला। सम्राट ने उसकी प्रशंसा की एवं सम्मान स्वरूप उसे बाघमार एवं बहादुर की उपाधि प्रदान की एवं एक अरबी घोड़ा, खिलअत तथा जागीर का अधिकार प्रदान किया।
खेमकरण की शक्ति, वीरता एवं रणकौशलता का जयपुर के सवाई जयसिंह एवं दिल्ली का मुगल बादशाह लोहा मानते थे। जयसिंह ने भी उसे जयसिंहपुरा छावनी (दिल्ली) में सम्मानित किया। उसके पराक्रम के कारण मुगल हरम में सन्नाटा छा जाता था। उसने विधर्मियों से बहन-बेटियों के सतीत्व की रक्षा की तथा अपने अधीन ब्रज क्षेत्र में उसने जजिया कर नहीं लगने दिया, जबकि यह संपूर्ण भारतवर्ष में लागू रहा। खेमकरण चक्राकार तलवार चलाने में प्रवीण था। उसने अपने जीवनकाल में अनेक युद्ध राजपूतों, मुगलों, पठानों एवं आक्रांताओं से लड़े, उसने अपनी तलवार से सभी को लोहा मानने को विवश किया। सभी में सफल योद्धा रहा।
सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी में उत्तर भारत के राजनैतिक परिदृश्य में क्रांतिकारी भूमिका निभाने वाले अप्रितम योद्धा खेमकरण सोगरिया ने स्वतंत्रता, धर्म-संस्कृति तथा मानवता की रक्षा के लिए मुगल सल्तनत से लंबा संघर्ष किया। उसने सम्राट आलमगीर से सशस्त्र संघर्ष, जाजऊ (आगरा) युद्ध, सम्राट जहांदार शाह से सामूगढ़ युद्ध, राजपूत नरेश जयसिंह से युद्ध, थूनगढ़ी की रक्षार्थ युद्ध, ब्रज क्षेत्र में स्वतंत्र राज्य स्थापना के लिए आजीवन संघर्ष किया। हर बार विजयी रहा। दुर्भाग्यवश धोखे से 21 जुलाई 1733 ई. को इस वीर प्रतापी शासक की मृत्यु हो गई। 18वीं शताब्दी के मध्यकाल की इस दुखद घटना से ब्रज प्रदेश का एक रणबांकुरा वीर योद्धा खो दिया।
रामवीर सिंह वर्मा
वरिष्ठ साहित्यकार भरतपुर