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दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल था, एथलेटिक्स ने दे दी इज्जत भरी जिंदगी

locationभिलाईPublished: Apr 05, 2018 10:33:28 pm

Submitted by:

Komal Purohit

मरोदा बस्ती के दर्जनभर से ज्यादा युवा है जिनकी किस्मत केवल एथलेटिक्स के जरिए बदल गई।

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भिलाई. खेल नगरी भिलाई में युवा टीम गेम में ज्यादा किस्मत आजमाते हैं पर एथलेटिक्स के जरिए अपनी जिंदगी बदलने वाले कम ही हैं। मरोदा बस्ती के दर्जनभर से ज्यादा युवा है जिनकी किस्मत केवल एथलेटिक्स के जरिए बदल गई। एक वक्त था जब इन युवाओं के घर दो वक्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो पाता था। बेहतर डाइट के साथ खेलना उनके लिए सपने जैसा था पर उन्हें अपनी मेहनत और कोच के सिखाए खेल पर पूरा भरोसा था। महज 5 साल की जी-तोड़ मेहनत के सहारे वे ऐसे दौड़े कि उनकी दौड़ एक अच्छी नौकरी पर आकर खत्म हुई। कोच विनोद नायक की कोचिंग और इन खिलाडिय़ों के बुलंद इरादों ने ना सिर्फ उनकी अपनी जिंदगी को संवारा बल्कि उनके लिए भी एक मॉडल बन गए जो गरीबी और मुफलिसी के दौर में कुछ कर दिखाने का जज्बा रखते हैं। इस ग्राउंड में ऐसे 50 से ज्यादा युवा है जो केवल एथलेटिक्स के जरिए ही सेना और पुलिस में नौकरी की तैयारी भी कर रहे हैं।

सालभर करते हैं तैयारी
जयंती स्टेडियम में कोच विनोद नायर स्कूल और कॉलेज के छात्रों को सालभर एथलेटिक्स की कई विधाओं के साथ-साथ सेना भर्ती की तैयारी भी कराते हैं। हाल ही में एसएएफ में चल रही भर्ती में 30 से ज्यादा युवाओं ने फिजिकल टेस्ट पास कर लिया है। उन्होंने कहा कि अगर वे लिखित परीक्षा में थोड़ी मेहनत कर लेंगे तो उनकी नौकरी आसानी से लग जाएगी। जिसके बाद वे अपने खेल को और निखार सकेंगे।

बिना डाइट के दी कोचिंग
कोच विनोद बताते हैं कि वे कुछ साल पहले टंकी मरोदा के शासकीय उमा शाला में पीटीआई थे। उन दिनों यह सब युवा स्कूल में पढ़ते थे। वे वहां बच्चों को एथलेटिक्स की तैयारी कराते थे। तभी एक -एक कर यह सभी छात्र उनके पास पहुंचे। पर इसमें से अधिकांश अंडर वेट थे। ना तो उनके घर में बेहतर डाइट का इंतजाम था और ना ही वे अपने पर कुछ खर्च करने सक्षम थे। जब इनकी ट्रेनिंग शुरू हुई तो वे खुद भी असंजस में थे कि वे उन्हें ट्रेनिंग कैसे दें। क्योंकि एथलेटिक्स की ट्रेनिंग के दौरान शरीर को अच्छे भोजन की जरूरत होती है जो उनके पास नहीं था। पर वे मेहनत को तैयार थे तो उन्होंने भी ट्रेनिंग शुरू की। खेल के साथ ही उन्होंने उन सभी को सबसे पहले नौकरी पाने का टारगेट दिया ताकि उनके परिवार की जिंदगी सुधर जाए।
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नौकरी मिलते ही छुड़ाई पैरेंट्स की मजदूरी

मजदूर चुरामल लाल का बेटा किशन साहू आज दुर्ग पुलिस में कांस्टेबल के पद पर है। पर किशन के परिवार ने कभी सोचा नहीं था कि उसके खेल के जुनून से पूरे परिवार की जिंदगी बदल जाएगी। बालोद जिले के दियााबाती गांव का किशन साहू स्कूल गेम में भाला फेंक की प्रतियोगिता में शामिल होने राजहरा गया था, तभी सेल एकडमी के एक खिलाड़ी ने कहा कि तुम देहाती क्या खेलोगे? बस उस दिन ठान लिया कि अपने नाम नया रिकार्ड बनाकर दम लेगा। वहां एक व्यक्ति ने कोच विनोद नायर का नाम सुझाया। कोच ने समर कैंप में उसे भिलाई बुलाया और ट्रेनिंग दी। दो महीने की प्रैक्टिस में किशन काफी आगे निकल गया। बस क्या था रिसाली के सरकारी स्कूल में एडमिशन लिया और खेलना शुरू किया। 6 महीने में ही स्टेट में 25 साल पुराना रिकार्ड तोड़ा और भाला फेंक में 53.40 मीटर का रिकार्ड बनाया। फिर पीछे मुडकर नहीं देखा। 2009 में पुलिस भर्ती में उसका चयन हो गया। ऑल इंडिया पुलिस गेम में बेहतर प्रदर्शन करने पर एशियन गेम के ट्रायल तक पहुंचा पर वहां हुई एक दुर्घटना से वह फाइनल में परफार्म नहीं कर पाया। किशन बताता है कि मजदूर पिता उसका खर्च नहीं उठा सकते थे तो मां ने भी मजदूरी शुरू की। स्कूल से आने के बाद वह रात में बियर बार में काम करता और अपने लिए डाइट का इंतजाम करता था। पर नौकरी लगने के बाद उसने अपने पैरे्टस की मजदूरी छुड़ा दी। वह कहता है कि अगर वह एथलेटिक्स में नहीं आता तो शायद उसकी जिंदगी कुछ और होती।
सभी की अपनी कहानी पर संघर्ष एक
मरोदा निवासी लक्ष्मण साहू 7 साल से आर्मी में है। इसकी शुरुआत भी मरोदा स्कूल से ही हुई शारीरिक रूप से कमजोर लक्ष्मण को कोचिंग देने में भी कोच डरते थे पर उसके जुनून को देख कोच ने उसे 5 और 10 किलोमीटर दौड़ के लिए तैयार किया। राष्ट्रीय स्तर पर पदक प्राप्त करने वाले लक्ष्मण अब अपने मजदूर पिता जगतराम का सहारा बन चुका है।

दोनों भाई ने साथ की तैयारी
रिक्शा चलाने वाले पिता को देख नाकेश और तामेश्वर अक्सर दुखी रहते थे। नेवई बस्ती के इन दोनों भाईयों ने कोच से बात की और एथलेटिक्स में कमद रखा। 8 सौ मीटर और 15 सौ मीटर दौड़ में 18 बार पदक ले चुके नाकेश का चयन आर्मी में हो गया। पर छोटे भाई तामेश्वर को छत्तीसगढ़ आम्र्स फोर्स में पहले नौकरी मिल गई। दोनों भाई अब नौकरी पर हैं और पिता अब रिक्शा से कार ड्राइवर बन गए। नाकेश बताता है कि स्कूल के दिनों में दोनों भाई के लिए डाइट का इंतजाम करना पिता के लिए मुश्किल होता था। तब उन्हें पता चला कि पदक जीतने से पैसे मिलते हैं तो वे पदक जीतने में जान लगा देते ताकि कुछ दिनों के लिए ही सही पर वे शरीर को मजबूत करने कुछ अच्छा खा सकें।

आर्मी में पाई नौकरी
ठेका मजदूर गुलाब चंद देशमुख का बेटे राहुल की कहानी भी कुछ अलग नहीं है। आठवीं में था तो पहली बार ग्राउंड से जुड़ा। चार साल की मेहनत ने उसे हडल्र्स और ट्रीपल जंप में चैम्पियन बना दिया। फिर क्या था इस खेलके साथ ही सेना में भर्ती की तैयार भी साथ-साथ चलती रही और मौका मिलते ही उसे आर्मी में ट्रायल दिया और उसका सलेक्शन हो गया।

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