जीवटता, त्याग, बलिदान, परोपकार, मर्म स्पर्श से गांवों में घर-घर जाकर कुष्ठ रोगियों को ढ़ूंढने वाली इस देहाती महिला ने छुआछूत के दौर में हजारों कुष्ठ रोगियों की जिंदगी मुस्कान से भर दी। आधुनिक युग में स्त्री और पुरुष के भेद को कहीं दूर छोड़कर ६२ साल की उम्र में आज भी निरंतर समाज की प्रेरणा बन उसे पोषित करने में जुटी हंै।
अभिशाप मानते थे कुष्ठ रोग को 90 के दशक में कुष्ठ रोग को लोग अभिशाप मानते थे। गणेशिया बताती हंै कि उस दौर में कुष्ठ रोगियों की पहचान तो हो जाती थी, लेकिन उन्हें निरंतर दो साल तक दवाई का सेवन कराना बड़ी चुनौती थी। कुष्ठ रोगियों के प्रति समाज की असंवेदनशीलता, उन्हें बहिष्कृत करना, घर से दूर करना आम बात थी। ऐसे में बीमारी के साथ बौद्धिक जड़ता को समाज से दूर करने के लिए लोगों को घर-घर जाकर समझाना पड़ता था।
अपने ही गांव में सघन अभियान चलाकर उन्होंने लगभग 150 लोगों को कुष्ठ के अभिशाप से मुक्त कराया। तत्कालीन कलेक्टर विवेक ढांड के सरंक्षण में पहली बार दुर्ग जिले में कुष्ठ मुक्त अभियान चला। उस अभियान से जुड़कर समाज को कुष्ठ मुक्त करने का प्रण लिया। लोग जुड़ते चले गए और कारवां बढ़ता चला गया।
उपराष्ट्रपति ने किया सम्मानित कुष्ठ रोगियों के लिए जीवन समर्पित करने वाली गणेशिया देशमुख को तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने दिल्ली में सम्मानित किया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अधिकारी साशा कावा ने इंटरनेशनल लेप्रोसी कांफ्रेस में उन्हें मंच देकर सम्मानित किया। गणेशिया बताती है जब उन्हेंने डब्ल्यूएचओ के प्रतिनिधि से कहा वह ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है।
ठीक से हिंदी भी नहीं बोल पाती तो उन्होंने छत्तीसगढ़ी में अपनी बात रखने के लिए प्रेरित किया। देशभर से आए हजारों प्रतिनिधियों के सामने कुष्ठ उन्मूलन पर छत्तीसगढ़ी में बोलकर प्रकाश डाला। कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए उन्हें अविभाजित मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल मोहम्मद रफीक कुरैशी ने भी सम्मानित किया था।
घरेलू महिला से जनप्रतिनिधि तक का सफर जिला मुख्यालय से 15 किमी. दूर समोदा निवासी गणेशिया देशमुख ने घरेलू महिला से लेकर जनप्रतिनिधि तक का सफर अपने बुलंद हौसलों से तय किया। बाल विवाह के बाद तीन बच्चों की जिम्मेदारी निभाते हुए वह समोदा गांव की पहली महिला सरपंच बनीं। उसके बाद दुर्ग ब्लॉक से जनपद पंचायत सदस्य का चुनाव सबसे ज्यादा मतों से जीतकर दूसरी बार इतिहास रचा।
महज आठवीं तक पढ़ी ग्रामीण महिला कहती है कि वक्त बदलता है, लेकिन इंसान के रूह में छिपी अच्छाई कभी नहीं बदलती। समाज में स्त्री पुरुष का भेद हमारी सोच की उपज है। सिर्फ महिला हैं ये सोचकर कभी अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करना चाहिए।