आषाढ़ की समाप्ति और श्रावण के आरंभ की संधि को आषाढ़ी पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा अथवा गुरु पूर्णिमा कहते हैं। गुरु पूर्णिमा आत्म-बोध की प्रेरणा का शुभ त्योहार है। यह त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है। काव्यात्मक भाषा में कहा गया है। गुरु पूर्णिमा के चांद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चांद की तरह जीए गए अनुभवों का अक्षय कोष होता है। इसीलिए इस दिन गुरु की पूजा की जाती है इसलिए इसे गुरु पूजा दिवस भी कहा जाता है। प्राचीन काल में विद्यार्थियों से शुल्क नहीं वसूला जाता था अत: वे साल में एक दिन गुरु की पूजा करके अपने सामथ्र्य के अनुसार उन्हें दक्षिणा देते थे। महाभारत काल से पहले यह प्रथा प्रचलित थी लेकिन धीरे-धीरे गुरु-शिष्य संबंधों में बदलाव आ गया। कहा गया है कि अगर आप गुरु की ओर एक कदम बढ़ाते हैं तो गुरु आपकी ओर सौ कदम बढ़ाते हैं। कदम आपको ही उठाना होगा, क्यों यह कदम आपके जीवन को पूर्णता प्रदत्त करता है।
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा और आदर का स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। आचार्य देवोभव: का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं। गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था।
प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे लेकिन आज समय बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सींचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं।
पहले गुरु उसे कहते थे जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य-ये दो पद अलग-अलग हो गए। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा इसलिए आज हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो एक बड़ी भीड़ जमा है लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गई है।
बाहरी ज्ञान, मन-बुद्धि का ज्ञान-विज्ञान है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान मन से परे भगवान का ज्ञान है। परन्तु विडम्बना यह है कि जिस प्रकार गुरु रूपी माँ की महिमा और सम्मान में गिरावट आई है, रोजगार दिलाने वाले शिक्षकों का अवमूल्यन हुआ है। उसी प्रकार भगवान से मिलाने वाले आध्यात्मिक गुरुओं का भी अवमूल्यन हो रहा है। आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है। असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुण्डलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दु:ख काटने के नाम पर, रोग-व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गए हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है।
जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह-तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के। सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है। इसीलिए कहा गया है कि गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय। यानी भगवान से भी अधिक महत्व गुरु को दिया गया है। यदि गुरु रास्ता न बताए तो हम भगवान तक नहीं पहुंच सकते। अत: सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्यौछावर कर दीजिए। उनके उपदेशों को अक्षरश: मानिए और जीवन में उतारिए। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगाए। यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है तथा इसी के साथ अपने गुरु का भी सम्मान करें।
भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत ऊंचा और आदर का स्थान है। माता-पिता के समान गुरु का भी बहुत आदर रहा है और वे शुरू से ही पूज्य समझे जाते रहे है। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के समान समझ कर सम्मान करने की पद्धति पुरातन है। आचार्य देवोभव: का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि हरिशयनी एकादशी के बाद सभी देवी-देवता चार मास के लिए सो जाते है। इसलिए हरिशयनी एकादशी के बाद पथ प्रदर्शक गुरु की शरण में जाना आवश्यक हो जाता है। परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं। गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के बीच और शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध है। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी। सादा जीवन, उच्च विचार गुरुजनों का मूल मंत्र था। तप और त्याग ही उनका पवित्र ध्येय था। लोकहित के लिए अपने जीवन का बलिदान कर देना और शिक्षा ही उनका जीवन आदर्श हुआ करता था।
प्राचीन काल में गुरु ही शिष्य को सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह का ज्ञान देते थे लेकिन आज समय बदल गया है। आजकल विद्यार्थियों को व्यावहारिक शिक्षा देने वाले शिक्षक को और लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले को गुरु कहा जाता है। शिक्षक कई हो सकते है लेकिन गुरु एक ही होते है। हमारे धर्मग्रंथों में गुरु शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा गया है कि जो शिष्य के कानों में ज्ञान रूपी अमृत का सींचन करे और धर्म का रहस्योद्घाटन करे, वही गुरु है। यह जरूरी नहीं है कि हम किसी व्यक्ति को ही अपना गुरु बनाएं।
पहले गुरु उसे कहते थे जो विद्यार्थी को विद्या और अविद्या अर्थात आत्मज्ञान और सांसारिक ज्ञान दोनों का बोध कराते थे लेकिन बाद में आत्मज्ञान के लिए गुरु और सांसारिक ज्ञान के लिए आचार्य-ये दो पद अलग-अलग हो गए। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा इसलिए आज हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो एक बड़ी भीड़ जमा है लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गई है।
बाहरी ज्ञान, मन-बुद्धि का ज्ञान-विज्ञान है परन्तु आध्यात्मिक ज्ञान मन से परे भगवान का ज्ञान है। परन्तु विडम्बना यह है कि जिस प्रकार गुरु रूपी माँ की महिमा और सम्मान में गिरावट आई है, रोजगार दिलाने वाले शिक्षकों का अवमूल्यन हुआ है। उसी प्रकार भगवान से मिलाने वाले आध्यात्मिक गुरुओं का भी अवमूल्यन हो रहा है। आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है। असली गुरु की पहचान करना बहुत कठिन हो गया है। भगवान से मिलाने के नाम पर, मोक्ष और मुक्ति दिलाने के नाम पर, कुण्डलिनी जागृति के नाम पर, पाप और दु:ख काटने के नाम पर, रोग-व्याधियां दूर करने के नाम पर और जीवन में सुख और सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गए हैं जिनको वास्तव में कोई आध्यात्मिक उपलब्धि नहीं है।
जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। तरह-तरह के प्रलोभन देकर धन कमाने के लिए शिष्यों की संख्या बढ़ाते हैं। जिसके बाड़े में जितने अधिक शिष्य हों वह उतना ही बड़ा और सिद्ध गुरु कहलाता है। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के। सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है। इसीलिए कहा गया है कि गुरु-गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय, बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविंद दियो मिलाय। यानी भगवान से भी अधिक महत्व गुरु को दिया गया है। यदि गुरु रास्ता न बताए तो हम भगवान तक नहीं पहुंच सकते। अत: सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्यौछावर कर दीजिए। उनके उपदेशों को अक्षरश: मानिए और जीवन में उतारिए। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगाए। यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है तथा इसी के साथ अपने गुरु का भी सम्मान करें।