संस्कार ही विचार एवं आचार परिवर्तन के मुख्य धुरी है- आचार्य महाश्रमण
भीलवाड़ाPublished: Sep 20, 2021 10:19:07 pm
गुरु का सानिध्य व आशीर्वाद पाकर शिष्य गुरु से दो कदम आगे बना रह सकता है इसका प्रयास गुरु द्वारा किया जाता है।
संस्कार ही विचार एवं आचार परिवर्तन के मुख्य धुरी है- आचार्य महाश्रमण
भीलवाड़ा।
आचार्य महाश्रमण ने भीलवाड़ा के तेरापंथ नगर आदित्य विहार में चातुर्मास प्रवास के दौरान धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि हमारे जीवन में तीन तत्वों का महत्व है विचारए आचार और संस्कार विचार व आचार दो नदी के समान है। इस पर संस्कार पुल का काम करता है। संस्कार आस्था का विषय हैए अच्छे आचारए अच्छे विचार से व्यक्ति के संस्कार बदले जा सकते हैं । आचार्य श्री ने श्रीमद् भगवत् गीता में वर्णित अर्जुन श्री कृष्ण संवाद को स्मरण करते हुए कहा है कि दुनिया में पाप बढऩे के दो ही कारण है काम और क्रोध जिसके कारण व्यक्ति पाप की ओर अग्रसर होता है। मनुष्य रागए द्वेषए कामए क्रोध को नियंत्रित कर मनुष्यत्व की ओर बढ़ कर अपने पतन से बचाव कर सकता है। जीवन में स्वाध्याय के कारण ही हमारा संस्कार उच्च होता हैए यह निरंतर अभ्यास से ही संभव है। शिव संकल्प कल्याणकारी संकल्प है। जो हमारे विचारों को पवित्र कर संस्कार प्रदान करता है घर पर भी बालकों को संस्कार देने में माता.पिता की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।
उन्होंने एक गरीब बालक का उदाहरण देते हुए कहा कि जंगल में लकड़ी काटने समय बालक की कुल्हाड़ी नदी में गिर जाती है तब असहाय होकर बालक रोने लगता है। उसी समय यक्ष देवता ने उस बालक की परीक्षा लेनी चाही उन्होंने नदी से सोने की कुल्हाड़ीए चांदी की कुल्हाड़ी निकालकर बालक को दी परंतु उसने लेने से मना कर दिया। क्योंकि वह कुल्हाड़ी उसकी नहीं थी जब लोहे की कुल्हाड़ी निकल कर दी तब बालक ने तनिक भी विचार नहीं किया वह तुरंत अपने चेहरे पर आनंद मुद्रा से कहा यह मेरी ही कुल्हाड़ी है तब यक्ष देवता ने बालक से पूछा कि तुमने सोनेएचांदी की कुल्हाड़ी लेने से मना क्यों किया तो बालक ने कहा यह मैरे संस्कार है। जो माँ ने मुझे दिए हैं . कि सदैव ईमानदारी एवं सत्यता का व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार यदि अच्छे विचारों का प्रभाव संपूर्ण देश में फैलता है तो देश का गौरव पूरे विश्व में फैलता है। सच्चाई और अच्छाई जहां से मिलेए जिस माध्यम से मिले, जिस तरीके से मिले हमें उसे ग्रहण करना चाहिए। अंत में उन्होंने कहा कि आस्था तथा आचार जीवन में महत्वपूर्ण तत्व है आत्मा जितनी निर्मल रहती हैए व्यक्ति का आचार भी उतना ही निर्मल रहता है। हमारी तो पांच इंद्रियां है उनमें से दो इंद्रियां ज्ञान की पुष्टि के लिए है। देखना व सुनना यह दो इंद्रियां हमारे मन के अंदर जिस प्रकार की चीजें डालेगी हमारा आचार विचार उसी प्रकार से बनेगा। जिस प्रकार हमारा संकल्प होता है उसी प्रकार से हमारा आचरण बन जाता है।
इस धर्म सभा में सरसंघचालक डॉ मोहन राव भागवत ने कहा कि गुरु का सानिध्य व आशीर्वाद पाकर शिष्य गुरु से दो कदम आगे बना रह सकता है इसका प्रयास गुरु द्वारा किया जाता है। आचार्य श्री का कार्यक्षेत्र आध्यात्मिक है जो कि सभी बातों का आधार है। हमारा कार्य क्षेत्र मुख्यत: भौतिक संसार है। संसार में एक दूसरे के साथ आत्मीयता महत्वपूर्ण है।
एक दूसरे की सहायता करते हुए आगे बढऩा यह कार्य है धर्म का सनातन धर्म में हम सब एक दूसरे के दुश्मन नहीं है हमारा सब का नाता आपस में भाई का है। जो मेरे लिए अच्छा है वह दूसरों के लिए भी अच्छा है जो मुझे अच्छा नहीं लग रहा वह दूसरों को भी अच्छा नहीं लगेगा इससे मन में करुणा उत्पन्न होती। सत्य अहिंसा अस्तेय का विचार है हमारे यहां सर्वत्र हैं। मन को अगर हमने सही दिशा में लगाया तो वह पूर्ण शक्ति के साथ वाणी विचार और दर्शन में प्रकट होगा कुछ संस्कार जन्म से प्राप्त होते हैं कुछ संस्कार सत्संग से प्राप्त होता है। गुरु अथवा किसी को अगर कुछ परिवर्तन करवाना है तो उसको उसी प्रकार बन करके इस समाज जीवन में रहना पड़ता है जैसा वह अन्य व्यक्तियों से करवाना चाहता है। गुरु को अपने शिष्यों से दो कदम आगे रहकर उन सब सद्गुणों में अपने को एक आदर्श रूप में प्रस्तुत करना होता है। शिष्य को भी लगे की गुरु के सानिध्य में मैं खड़ा हूं तो मेरे सिर पर उनका हाथ है मैं पहले से कुछ ऊंचा उठ रहा हूं। अपने कारण दूसरों को कष्ट नहीं हो यही आचार है। यह आचार बनता कैसे हैं अपने जीवन में छोटे.छोटे आचरणों में ही आचार बनता है। उत्तम आचार के लिए अपनी छोटी छोटी बातों को आदतों में लाना इसे सरलता से अपने जीवन में उतारना अगर यह प्रारंभ हुआ तो आचरण में आचार आ जाएगा वह व्यक्ति सतपथ पर जाने अनजाने में भी बढ़ता रहता है। माता की अगर पुत्र से ममता है तो पुत्र हमेशा माता से जुड़ा रहता है।
आज दुनिया में पहली समस्या है संस्कारों की। इसके लिए मैं कितना मजबूत हूं किस दुनिया में चलने वाले सभी प्रपंच मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते इसके लिए स्वयं को मजबूत होना पड़ेगा बच्चों को जो सही है वह बताना पड़ेगा अच्छा सुनना अच्छा देखना अच्छा पहनना यही संस्कारों की सीढ़ी है। मेरा परिवार आचरण का केंद्र बने।